________________
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६२
हेतु विवादे चित धरि जोइये, अति दुरगम नयवाद । पागम वादे, गुरु गम को नहीं, ए सबलो विषवाद ।।
अभि० । ३ ।। घाती डूगर आडा अति घणा, तुझ दरसण जगनाथ । धीठाई करि मारग संचरूं, सेंगू कोई न साथ ।।
अभि० ।। ४ ।। दरसण दरसण रटतो जो फिरूं, तो रण-रोझ समान। .. जेहने पिपासा अमृत पान नी, किम भाँजे विष-पान ।।
• अभि० ।। ५ ।। तरस न आवे मरण जीवन तणो, सीझे जो दरसण काज। दरसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, 'आनन्दघन' महाराज ॥ ..
. .. अभि० ।। ६ ।।
.. शब्दार्थः-दरसण-दर्शन, सम्यग्दर्शन । तरसिये व्याकुल होना । मत-मत=भिन्न-भिन्न दर्शन वालों से । अहमेव= अहंकार । दोहिलू =दुर्लभ । विलेष जांच करना। घाती-मारक । डूगर=पर्वत । घाती-डूगर=चार घाती कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय । आड़ा= रुकावट, बाधक । धीठाई धृष्टता। संचरू' =चलू। सेंगू =मार्ग-दर्शक । रण-रोझ= वन की नील गाय की तरह अरण्यरोदन । सीझ = सफल हो ।
अर्थ, भावार्थ, विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कह रहे हैं कि मैं श्री अभिनन्दन जिनेश्वर के दर्शन के लिए तरस रहा हूँ। हे देवाधिदेव ! आपके दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं। जब भिन्न-भिन्नं दर्शनशास्त्रियों के पास जाकर पूछा तो सभी को अपने 'दर्शन' की श्रेष्ठता का अहंकार करते देखा ।। १॥
दर्शनशास्त्र का सामान्य अध्ययन करना ही कठिन है, फिर उसे पढ़कर उस पर निर्णय करना तो अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है। नशे में चर अन्धा व्यक्ति सूर्य और चन्द्रमा के रूप का विश्लेषण कैसे कर सकता है ? वह उनके बिम्ब को कैसे पहचान सकता है ? ।। २॥