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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२६
अर्थ-भावार्थ-हे प्रभो! आप निर्मल गुणरत्नों के रोहणाचल पर्वत हैं तथा मुनियों के मन रूपी मान-सरोवर के हंस हैं। वह नगरी घन्य है जो आपके चरणों से पावन हुई है। वह घड़ी भी धन्य है जिसमें आपका जन्म हुआ। आपके माता, पिता, कुल तथा परिवार सभी धन्य हैं ॥ ७ ॥
विवेचन-जिस प्रकार रोहणाचल पर्वत रत्नों की खान है, उसी प्रकार से भगवान भी अनेक गुणों की खान हैं। उनके माता, पिता, वंश, जन्म-स्थान तथा जन्म का समय सब धन्य हैं ।। ७ ।।.
अर्थ-भावार्थ - मेरा श्रेष्ठ मन रूपी भ्रमर हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! आपके चरण-कमलों के समीप ही मुझ सेवक को स्थान दें। हे आनन्दघन प्रभो! आप इस सेवक की इतनी प्रार्थना सुनकर अवश्य स्वीकार करें ।। ८ ।।
( १६ )
श्री शान्ति जिन स्तवन(राग-मल्हार, चतुर चौमासो पडकमी-ए देशी) शान्ति जिन एक मुझ विनती, सुणो त्रिभुवन राय रे । शान्ति स्वरूप किम जाणिये, कहो मन किम परखाय रे।
- शान्ति० ।। १ ॥ धन्य तु प्रातम एहवो, जेहने प्रश्न अवकाश रे.। धीरज मन धरि संभलो, कहूँ शान्ति प्रतिभास रे ।
शान्ति० ।। २ ॥ भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध जे, कह्या जिनवर देव रे । ते तिम अवितत्थ सद्दहे, प्रथम ए शान्ति पद सेव रे ।
शान्ति० ।। ३ ।। प्रागमधर गुरु समकिती, किरिया संवर सार रे। ' सम्प्रदायी अवंचक सदा, सुचि अनुभवाधार रे ।
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