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________________ श्री आनन्दघन पदावली-३२५ - विवेचनः-यदि सच्चा गुरु मिल जाये और आँखों में प्रवचन रूपी अंजन डाले तो हृदय-नेत्र खुल जायें ताकि भगवान की महिमा का आभास हो ।। ३ ॥ अर्थ-भावार्थः—मन अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार जितना दौड़ सकता था उतना दौड़ा, परन्तु उसकी दौड़ व्यर्थ गई। सद्गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान को अपनी बुद्धि के साथ जोड़कर विचार करने से प्रेमप्रतीति (भक्ति एवं श्रद्धा) का आधार आत्म-दर्शन तो मन के अत्यन्त समीप ही है ।। ४ ।। विवेचन-हम इधर-उधर कितने ही दौड़ें परन्तु सच्चे गुरु के बिना धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। कस्तूरी-मृग के समान वह दौड़ व्यर्थ सिद्ध होती. है। सद्गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को यदि बुद्धि के साथ जोड़ा जाये तो प्रेम-प्रतीति का आधार आत्म-दर्शन तो मन के निकट ही है ।। ४ ॥ अर्थ-भावार्थ-एकपक्षीय प्रीति भला कैसे निभ सकती है ? दोनों समान धर्मियों के मिलाप से मिलन होना सम्भव है। मैं रागी हूँ, मोहपाश में फंसा हुआ हूँ और आप राग-रहित एवं बन्ध-रहित हैं। आपके साथ मेरी प्रीति तो तभी होगी जब मैं भी आपके समान वीतरागी बन जाऊँ ।। ५॥ विवेचन–भगवान से प्रीति होनी कितनी कठिन है ? मैं रागी हूँ और वे वीतराग हैं। अतः जब दोनों का मिलाप हो जाये तभी प्रीति हो सकेगी ॥५॥ अर्थ-भावार्थ-परम निधान (मोक्ष-सुख) मुंह के सामने ही है, परन्तु संसारी मनुष्य अन्धे की तरह उसे लाँघ कर चले जाते हैं। जगदीश्वर की ज्ञान ज्योति के बिना संसारी एक अन्धे के पीछे दूसरे अन्धे की तरह दौड़ लगा रहा है और परम निधान आत्म-तत्त्व को अपने पास होते हुए भी नहीं पहचानता ॥ ६ ॥ विवेचन-सामने ही खजाना पड़ा है परन्तु अन्धा उसे देख नहीं सकता। इसी प्रकार से ज्ञान-ज्योति के बिना भगवान के गुणों को हम नहीं समझ सकते हैं ॥ ६ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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