SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३२४ अर्थ - भावार्थ:- भक्ति रंग में लीन होकर मैं श्री धर्मनाथ जिनेश्वर का स्तवन -गान करता हूँ । हे प्रभो ! आपके प्रति जो मेरी भक्ति है वह कभी टूटे नहीं, यही मेरी प्रार्थना है। मेरे मन-मन्दिर में आपके 'अतिरिक्त किसी अन्य के लिए कोई स्थान नहीं है । यही हमारा कुलधर्म है, आत्म-स्वभाव है, कुल परम्परा है ।। १ ।। अर्थ - भावार्थ:- यह संसार धर्म, धर्म कहता हुआ फिर रहा है, किन्तु धर्म के मर्म को, रहस्य को, वह तनिक भी नहीं जानता । अत: निज स्वरूप-रूप धर्म में परिणमन करने वाले धर्मनाथ जिनेश्वर के चरण पकड़ने के पश्चात्, चारित्र का अनुसरण करने के पश्चात् कोई भी पाप कर्म नहीं बँधता ।। २ ।। विवेचन :- हे प्रभो ! आपके बताये धर्मानुसार चलने के पश्चात् किसी शुभ कर्म का बन्ध नहीं होता । सम्पूर्ण संसार "धर्म करो, धर्म करो,” चिल्लाता है परन्तु धर्म का असली रूप नहीं पहचानता ।। २ ।। अर्थ - भावार्थ:- सद्गुरु प्रवचन रूपी अञ्जन जिस किसी व्यक्ति के हृदय रूपी नेत्रों में लगाते हैं, वह स्व स्वरूप रूपी परम निधान देख लेता है । हृदय नेत्रों से वह जगत- पति को देख लेता है जिसकी महिमा, जिसका यश मेरु के समान है ।। ३ ।। योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन ! 20246 अफिस 20146 घर * भागचन्द तिलोकचन्द जैन ( जनरल मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट ) 18, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 सम्बन्धित फर्म: सरावगी ट्रेडर्स बी-14, चांदपोल अनाज मण्डी, जयपुर (राजस्थान )
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy