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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४४
( २३ )
( राग-प्रासावरी) अवधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी ॥ .
- अवधू० ।। बम्मन के घर न्हाती धोती, जोगी के घर चेली। कलमा पढ़-पढ़ हुई रे तुरकडी, आप ही पाप अकेली ।।
अवंधूं० ।। १ ।। सुसरो हमारो बालो भोलो, सासू बाल कुमारी । पियुजी हमारो पोढे पारणिये तो, मैं हूँ झुलावनहारी ।।
अवधू० ॥ २ ॥ नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुवारी, पुत्र जणावन हारी । काली दाढ़ी को मैं कोई नहीं छोड्यो, .
तोए हजु हूँ बालकुमारी प्रवधू० ॥ ३ ॥ अढी द्वीप में खाट खटूली, गगन प्रोशीकु तलाई । धरती को छेड़ो, पाभ की पिछोड़ी, तोय न सोड भराई ।।
. अवधू० ।। ४ ।। गगन मंडल में गाय बियाणी, बसुधा दूध जमाई । सउरे सुनो भाई बलोणु बलोवे तो, तत्त्व अमृत कोई पाई ।
अवधू० ॥ ५॥ नहीं जाऊँ सासरिये, नहीं जाऊं पीयरिये,
पियूजी की सेज बिछाई । आनन्दघन कहे सुनो भाई साधु तो,
ज्योति में ज्योति मिलाई ।। अवधू० ।। ६ ।। टिप्पणी-इस पद की भाषा व शैली कबीर की भाषा व शैली से मिलती है। प्रानन्दघनजी ने अपने पदों में कहीं भी 'मानन्दघन कहे सुनो भाई साधु'-इस तरह अपनो छाप नहीं लगाई। श्री हजारीप्रसादजी द्विवेदी के 'कबीर' नामक ग्रन्थ में पृष्ठ ३०१ पर इस पद की