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श्री आनन्दघन पदावली-२४३
लांख जीव-मोनि में परिभ्रमण करता है। अतः अब राग-द्वेष की आवश्यकता नहीं है। अब मैं राग-द्वेष को नष्ट करने के लिए खड़ा हुश्री हूँ। अपने मन की शुद्धि करने के लिए मैं आत्मोपयोग में रमण करूंगा और काल का नाश करूंगा ।।२।।
अर्थ --श्रीमद् अानन्दघन जी महाराज कहते हैं कि देह तो विनाशी है। इसमें से अनेक पुद्गल गिरते हैं और अनेक नये देह में आते हैं । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ---इन पाँच प्रकार की देहों में भी प्रति पल परिवर्तन होता रहता है। देह विनाशी है परन्तु मैं आत्मा तो अविनाशी हूँ। आत्मा तीनों कालों में द्रव्य के रूप में एक समान रहता है। आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं और वे अविनाशी हैं, जिससे मैं अविनाशी चैतन्यमय आत्मा हूँ। असंख्यात प्रदेशों में लगे हुए अष्ट प्रकार के कर्म नष्ट स्वभाव वाले हैं, वे नष्ट हो जायेंगे और मैं आत्मा तो स्थिरता पूर्वक निवास करूंगा। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को दूर करके प्रात्मा को शुद्ध करूंगा। पंच महाव्रत दीक्षा लेकर सर्व विरति रूप चारित्र अंगीकार करके सकल कर्मों का क्षय करूंगा और कर्म का सम्बन्ध दूर करके ज्ञानादि गुणों की स्थिरता करूंगा। श्री आनन्दघन जी महाराज कहते हैं कि मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार, . परमात्मास्वरूप बनूगा ।।३।।
अर्थ --आत्मा अपना स्वरूप ज्ञात किये बिना अनन्त बार मरता रहा। आत्मा के अज्ञान से ही वह बाह्य वस्तुओं में मेरा-तेरा करके अनादि काल से परिभ्रमण करता है। आत्मा पर वस्तु में ममत्व का भ्रम करता है। आत्मज्ञान के बिना अनन्त बार उसकी जन्म, जरा तथा मृत्यु हुई। अब तो अपने प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप दिखाई दिया। शाता वेदनीय एवं अशाता-वेदनीय से सांसारिक सुख-दुःख होता है, परन्तु
अब तो सुख-दुःख भूलेंगे। अब मैं पिण्डस्थ ध्यान में प्रवृत्त होऊंगा और . चेतन का ध्यान करके अवसर आने पर अजरामर पद प्राप्त करूंगा।
श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि पिण्ड में बार-बार उत्पन्न होने वाले निपट, सर्वथा निकट हंस-इन दो अक्षरों से बोध्य चेतन का जो स्मरण नहीं करेगा, वही मरेगा। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि श्वासोच्छ्वास के बाहर निकलने वाले 'हंस' शब्द का स्मरण करते हैं, जिससे हम तो अल्प भव में अमर हो जायेंगे ॥४॥