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________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२४५ प्रथम पंक्ति है। 'कबीर' नामक ग्रन्थ के पद ११८ एवं ११६ की पंक्तियाँ इसी भाव की हैं। अतः यह पद कबीरदासजी का ही है। भजन-गायकों ने कुछ पंक्तियाँ इधर-उधर की हैं। अर्थ, भावार्थ, विवेचन हे अवधत! तु इसके ज्ञान का विचारक बन। जो मैं नीचे बताता हूँ उसमें पुरुष कौन है और नारी कौन है ? इसका विचार करके अपने आत्मा को निश्चयज्ञान रूप उत्तर दे। इस पद में आत्मा को पुरुष के रूप में बताया गया है, जिसकी पाँच इन्द्रियाँ और मति रूप स्त्री है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बिना मति संयोगों के अनुसार परिणत होती है। जब आत्मा ब्राह्मण के घर जन्म लेती है तब ब्राह्मण की देह में रही हुई आत्मा रूप पुरुष की मति रूप पत्नी नहाने-धोने आदि के रूप में परिणाम प्राप्त करती हुई प्रतीत होती है। प्रात्मा जब ब्राह्मण के घर अवतरित होती है, तब उसकी मति उस कूल में प्रवृत्त आचार-विचारों को ग्रहण करके नहाने, धोने के रूप में परिणत होती है। आत्मा रूपी पुरुष ने जब जोगी का वेष पहना, तब धनी धरवाना, मस्तक पर जटा रखनी, चोला पहनना और देह पर राख मलना इत्यादि कार्य करने प्रारम्भ किये। जोगी की अवस्था में मति सचमुच, जोगी की चेली बनकर उपर्युक्त कार्य करने लगी। प्रात्मा जब मुसलमान बना तब उसकी मति रूपी पत्नी इस्लाम धर्मानुसार कलमा पढ़कर तुरकड़ी बन गई । यदि विचार करें तो मति तो अपने रूप में ही है अर्थात् वह उपर्युक्त बातों से न्यारो अकेली है। बाह्य संयोगों के निमित्त से मति को वृत्ति जहाँ जिस प्रकार के संयोग प्राप्त होते हैं वहाँ उस प्रकार को हो जाती है। श्रीमद् आनन्दघनजी ने आत्मा को पुरुष की उपमा देकर अोर सम्यक्त्वरहित सामान्य मति को स्त्री की उपमा देकर अन्तर में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध बताकर अपूर्व भाव प्रशित किया है। जोगी मनोवत्ति को चेली के रूप में बनाने के लिए अनेक प्रकार की साधना करता है जिससे जोगी के घर चेली रूप मति को जो जानता है वह संसार-भूमि में आत्मा रूप पुरुष और मति रूप स्त्री की सूक्ष्म लीला का पर-भावरूप नाच देखकर आश्चर्यचकित होता है। मुसलमान के रूप · में उत्पन्न आत्मा रूप पुरुष की मति रूप पत्नी अन्य धर्म के अनुयायियों को काफिर गिनकर उन्हें मार डालने में अधर्म नहीं मानती। ईसाई आत्मा को मति रूप पत्नो अपने धर्म के अतिरिक्त समस्त धर्मों को असत्य गिनती है और अपने द्वारा मान्य धर्म को सत्य मानकर हिंसा आदि पापाचरण करके भी प्रभु को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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