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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २४६
मिथ्यात्व बुद्धि का नाश हुए बिना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता । श्री सर्वज्ञ वीतरागदेव के शुद्ध धर्म का अनेक मनुष्य श्रवण करते हैं, परन्तु जिसकी भव- स्थिति परिपक्व होती है उसे वीतरागदेव के धर्म के प्रति रुचि होती है ।। १ ।।
अर्थ, भावार्थ, विवेचन -मति कहती है कि मेरा व्यवहार सम्यक्त्वरूप श्वसुर है और मार्गानुसारी के गुणों आदि व्यवहार धर्म के प्राचरण के रूप में मेरी सास है । व्यवहार सम्यक्त्व श्वसुर बाला-भोला अर्थात् बालक है, वह सरल है । व्यवहार धर्माचरण रूप सास भी अन्तरंग ध्यान - क्रिया को अपेक्षा बालिका है और वह किसी भी एक जीव के साथ ही सदा काल का सम्बन्ध नहीं रखती होने से कुमारी मानी जाती है । व्यवहार सम्यक्त्व एवं सत्य व्यवहार धर्माचरण के द्वारा अन्तरात्मा की उत्पत्ति होती है, जिससे व्यवहार सम्यक्त्व और व्यवहार धर्माचरण दो जनक होने से अन्तरात्मा के पिता तथा माता गिने जाते हैं और उन दोनों से अन्तरात्मा की उत्पत्ति होने से अन्तरात्मा पुत्र रूप गिना जाता है और वह मति का स्वामी कहलाता है । मति कहती है कि मैं अपने स्वामी को अनेक प्रकार के परिणाम रूप भूले में झुलाने
वाली हूँ ।
मार्गानुसारी गुणों तथा देव गुरु की भक्ति, दया, प्रेम, भ्रातृ-भाव, मध्यस्थ भाव, सत्य तत्त्व की जिज्ञासा और अहिंसा आदि व्रतों के धर्माचरण के बिना उपशम आदि सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता जिसके बिना ऊपर के गुणस्थानकों में प्रवेश नहीं होता । निष्पक्ष बुद्धि से जो मनुष्य जिनवाणी का उपदेश श्रवण करते हैं उन्हें सम्यक्त्व हो जाता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए सद्गुणों की आवश्यकता है, मार्गानुसारी के व्यावहारिक गुणों को प्राप्त करने की आवश्यकता है, जैनागमों के अध्ययन, श्रवण एवं मनन करने की आवश्यकता है और व्यवहार सम्यक्त्व के चारों पर आचरण करने की आवश्यकता है । भेड़-चाल की तरह कतिपय मनुष्य अन्ध श्रद्धा से धर्म - क्रियाएँ करते हैं, परन्तु वे सत्य नहीं बोलते और धन के स्वार्थ से देव- गुरु की सौगन्ध खा लेते हैं अर्थात् वे प्रामाणिकता आदि नीति के गुणों से भ्रष्ट होते हैं । उनका व्यवहार-धर्माचरण रूखा गिना जाता है ।। २॥
अर्थ-मति कहती है कि मैंने किसी के साथ विवाह नहीं किया, क्योंकि अमुक आत्मा ही मेरा स्वामी है, ऐसा मैंने निश्चय नहीं किया । मैं कुमारी भी नहीं हूँ क्योंकि आत्म-स्वामी के बिना मैं कदापि अकेली