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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२४७ रही ही नहीं और न रहूंगी। यदि मैं मिथ्यात्व परिणाम को प्राप्त होती हूँ तो कर्म रूप पुत्र को उत्पन्न करतो हूँ और सम्यक्त्व परिणाम के द्वारा यदि मैं आत्मरूप स्वामी के साथ परिणत होती हूँ तो अन्तरात्म स्वामी के सम्बन्ध से परमात्मरूप पुत्र को उत्पन्न करती हूँ। मति कहती है कि विभावदशा में परिणाम प्राप्त करके कृष्णलेश्या परिणाम रूप जिसकी काली दाढ़ी है ऐसे किसी भी जीव को मैंने नहीं छोड़ा। उसने कहाकोई ऐसा काली दाढ़ी वाला मनुष्य नहीं है जिसे मैंने अशुद्ध परिणति के द्वारा संसार में नहीं खिलाया हो। मिथ्यात्वपरिणाम प्राप्त मैं पहले भी न तो विवाहित थी और न कुमारी थी। आज तक मैं बाल-कुमारी हूँ ॥ ३ ॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन ---मति कहती है कि जिसमें मनुष्य निवास करते हैं ऐसे ढाई द्वीप में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव रूप चार पायों वाले ज्ञेय वस्तु रूप खाट पर मैं लोटती हूँ। मति कहती है कि उच्च परिणाम रूप गगन का तकिया और ज्ञेय पदार्थ रूप पृथ्वी का किनारा अर्थात् उसका अन्त मेरी.तलाई है तथा मैंने समस्त आकाश की पछेड़ी अोढ़ी है तो भी मैं उपर्युक्त मर्यादा में समा नहीं सकती। ___मति कहती है कि मैं ढाई द्वीप में सदा निवास करती हैं, देवलोक में ऊपर भी रहती हैं, मैं पृथ्वी के किनारे तक निवास करती हूँ, सात पृथ्वी के नोचे के किनारे तक मैं निवास करती हूँ। देवों तथा नरक के जीवों के भी मति है अर्थात् चौदह राजलोक में मति के धारक समस्त जीव निवास करते हैं। द्रव्य चारित्र एवं भाव चारित्र के उच्च परिणाम को धारण करने वाली मति का सद्भाव सचमुच मनुष्य लोक में होने से मति ढाई द्वीप को अपना खटिया कहे तो युक्त ही है। उच्चपरिणाम धारक मति को तकिये की उपमा दी जाये तो वह भी उपमा की अपेक्षा उचित ही है। .. मनुष्यों को सम्यक्त्वधर्म तथा चारित्रधर्म की परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है। मनुष्य चौदह गुणस्थानकों तक गमन कर सकते हैं । उनकी मति को कोई पहुँच नहीं सकता। चरम से चरम क्षीणमोह दशा को मति प्राप्त करा सकती है ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-कर्णरूप आकाश मण्डल में श्री सर्वज्ञ प्रभु की वारणी रूप गाय की प्रसूति हुई, जिसका श्री द्वादशांगी रूप पृथ्वी पर दूध जमाया, जिसका विवेकी मनुष्यों ने मन्थन किया और उसमें से
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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