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योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४८
मक्खन निकला जिसे विरले मनुष्यों ने प्राप्त किया तथा जो छाछ निकली उसमें अनेक मनुष्य लालायित हुए ।
श्री सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी गुरु-परम्परा से आज तक चली आई है। उपदेश की वाणी कर्णमण्डल रूप आकाश में उत्पन्न होती है और पुस्तकों में लिखी जाती है। पुस्तक में लिखी गई भगवान की वाणी रूप दूध को पण्डित लोग एकत्र होकर बिलोते हैं अर्थात् उसका सार निकालते हैं, जिसमें से मक्खन रूपी अमृत को कोई विरले ही प्राप्त कर सकते हैं। शेष बची छाछ जैसी असार वस्तु में अनेक मनुष्य लालायित होकर प्रसन्न होते हैं। श्री सर्वज्ञ की वाणी का सिद्धान्तों में समावेश होता है। ग्यारह अंग और बारहवाँ दृष्टिवाद मिलकर द्वादशांगी गिनी जाती है, जिसमें से इस समय ग्यारह अंग विद्यमान हैं, बारहवाँ दृष्टिवाद अब नहीं है। वर्तमान में पैंतालीस आगम और सुविहित आचार्यों द्वारा रचित हजारों ग्रन्थ विद्यमान हैं। वे समस्त प्रमाणभूत माने जाते हैं।
सूत्र, नियुक्ति, चूणि, भाष्य, वृत्ति, अनुभव एवं गुरु-परम्परा का जो निषेध करता है, उसे भगवान की वाणी रूप गाय के दूध का नाशक समझे। सिद्धान्तों में से सार निकालना दही में से मक्खन अथवा घृत निकालने के समान है। आगम रूप समुद्र का पार पाना अत्यन्त दुर्गम है। आगम रूप सागर में जो प्रादेय तत्त्व हैं, वे अमृत तुल्य हैं । आगम रूप सागर में अनेक रत्न भरे हुए हैं। जो ज्ञानी आगम रूप सागर का मन्थन करके उसमें से रत्न रूप सार निकाल लेते हैं, वे वास्तव में विवेकी हैं। जो उस में से शुद्धात्म स्वरूप अमृत प्राप्त कर लेते हैं, वे सच्चे विवेकी हैं।
श्रीमद् आनन्दघन जी के कहने का आशय है कि इस भव में अमृत तुल्य प्रभ वाणी का सार सचमुच शुद्धात्मधर्म-रमणता है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा आत्मा के शुद्ध गुणों में रमणता करके नित्य सुख रूप अमृत का पान करना ही प्राप्तव्य कार्य है ।।५।।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन - सम्यग्मति कहती है कि अब मैं अप्रमत्त दशा की अवस्था प्राप्त करके निश्चय सम्यक्त्व के कारण स्वरूप व्यवहार सम्यक्त्व एवं बाह्य धर्म क्रिया रूप ससुर के पास जाना नहीं चाहती और न मैं बहिरात्म भावरूप अथवा मोह भाव रूप पीहर में ही जाऊंगी। अब तो मैं अपने अन्तरात्मपति की शुद्ध समता रूप शय्या बिछा कर प्रिय