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________________ श्री आनन्दघन पदावली-२४६ आत्म-स्वामी के साथ सदा आनन्द में रमण करूंगी। आनन्दघन जी कहते हैं कि हे साधुओ ! अन्तरात्मा परमात्मा रूप बनकर सिद्धालय में अनेक सिद्धों के साथ सादि अनन्तवें भाग में प्राप्त होता है, वहाँ प्रति समय अनन्त सुख का भोग लेता है। अप्रमत्त दशा को अनुभूति करने वाले मुनिवर सचमुच परम सुख की झलक का अनुभव करते हैं। जिसे आत्मानन्द के भोग में प्रेम है उसे ललनामों के भोग-सम्बन्ध की अभिलाषा नहीं रहती। जिसके रोम-रोम में आत्मा के शुद्ध रस का शुद्ध प्रेम प्रकट हुया है, उसे पाँच इन्द्रियों के पौद्गलिक सुख में कदापि आनन्द प्राप्त नहीं होता। सम्यग्मति का संग पाकर चारित्र आदि साधनों के द्वारा पूर्व में अनन्त जीवों को शुद्ध धर्म में रमणता करके परमज्योति पद प्राप्त हुआ, महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान में प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में अनन्त जीव परमज्योति पद प्राप्त करेंगे। भव्य जीवों को परमज्योति पद प्राप्त करने के लिए सम्यग्मति के द्वारा अन्तरात्मा में सदा रमण करना चाहिए ॥६॥ . ( २४ ) ... ( राग-प्रासावरी ) . अवधू वैराग बेटा जाया, याने खोज कुटंब सब खाया। अवधू० ।। जेणे माया ममता खाई, सुख दुःख दोनों भाई । काम क्रोध दोनों कु खाइ, खाई तृष्णा बाई ।। अवधू० ।। १ ॥ दुरमति दादी मत्सर दादा, मुख देखत ही मुना। मंगल रूप बधाई बांची, ए जब बेटा हुमा ।। अवधू० ।। २ ।। पाप पुण्य पड़ोसी खाये, मान लोभ दोउ मामा। मोह नगर का राजा खाया, पीछे ही प्रेम ते गामा ।। अवधू० ।। ३ ॥ भाव नाम धर्यो बेटा को, महिमा वरण्यो न जाई । आनन्दघन प्रभु भाव प्रकट करी, घट-घट रहो समाई ।। अवधू० ।। ४ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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