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________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१३६ आत्मा ऊपर-ऊपर के गुण-स्थानकों में प्रविष्ट होती रहती है। आत्मा के ऊपर के गुणस्थानकों में प्रवेश करने पर अन्तर में अनुभव ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है। इसके साथ सहज सुधारस के स्वाद की भी वृद्धि होती है। आत्मा ज्यों-ज्यों श्रद्धा, सुमति एवं समता के समागम में तल्लीन होती जाती है, त्यों-त्यों वह सहज आनन्द में लीन होती जाती है। ऐसा श्रीमद् आनन्दघन जी का कथन है । (राग-वसन्त-धमाल) विवेकी वीरा सह्यो न परै वरजो न आपके मीत। कहा निगोरी मोहनी मोहक लाल गँवार । वाके घर मिथ्या सुता, रीझ पर तुम्ह यार ।।विवेकी० ॥१॥ क्रोध, मान बेटा भये, देत चपेटा : लोक । लोभ जमाई, माया सुता, एह बढ्यो परिमोक ।।विवेकी० ॥२।। गई तिथ को कहा बामणे पूछे समता भाव । घर को सुत तेरे मतै, कहा लु करू बढ़ाव ।। विवेकी० ॥३॥ तब समता उदिम कियो, मेट्यो पूरव साज । प्रोति परम सु जोरिके, दीन्हो आनन्दघन राज ॥विवेकी० ॥४॥ अर्थ–सुमति विवेक को कहती है 'हे विवेक भाई ! मुझ से अब सहन नहीं होता। स्त्री को सौत का दुःख मृत्यु से भी अधिक होता है । आप अपने मित्र को रोकते क्यों नहीं ? ___ 'निगोड़ी मोहिनी की क्या बिसात है ? उसमें ऐसा कौनसा मोहक गुण है। भाई विवेक ! तुम अपने मित्र चेतन को क्यों नहीं समझाते कि वे गँवार मोहिनी के फन्दे में क्यों फँसते हैं ? उसके परिवार में मिथ्यात्व नामक पुत्री है। तुम्हारे मित्र उस पर पता नहीं क्या देखकर मोहित हो गये हैं ?' ॥१॥ विवेचन-सुमति ने विवेक को जो कहा वह उचित ही कहा है कि गँवार मोहिनी पर मुग्ध वही होता है जो गँवार हो । सुमति ने विवेक को चेतन को समझाने की बात कही है कि वे चतुर हैं फिर मोहिनी पर
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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