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श्री आनन्दघन पदावली-१३५
जो परम रस है उसके परिपाक की पूर्णता प्राप्त करता है अर्थात् आत्मस्वभाव के अनुभव से आत्मस्वरूप की तदाकार वृत्ति की परिपाक अवस्था को अपूर्व रीति से प्रत्यक्ष करता है ।। २ ॥
विवेचन--सम्यक्त्व दृष्टि प्राप्त करने से प्रात्मा की चतुर्गति में भ्रमण की इच्छा समाप्त हो जाती है। आत्मा की अपने मूल शुद्ध धर्म के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। वह सिद्ध-सिद्धान्त रसपाक का भोजन करके पुष्ट बनती है। फिर उसको एकान्तवाद के कुत्सित भोजन की रुचि नहीं होती। सम्यक्त्व दृष्टि के घर में अपूर्व सिद्धान्त पाक का भोजन है। · मनुष्यों को सम्यक्त्व दृष्टि की योजना प्राप्त करने के लिए प्रथम व्यवहार-सम्यक्त्व के उद्देश्यों का अवलम्बन लेने की आवश्यकता है। सम्यक्त्वदृष्टि को अन्तरात्मा के बिना अच्छा नहीं लगता। सम्यक्त्व दृष्टि के घर में आने पर बहिरात्मा ही अन्तरात्मा बन जाती है।
विवेक सुमति को कहता है कि मैं तुम्हें केवल इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे प्रियतम तुम्हारे पास आ गये हैं। वे तुम्हारे ही हैं। विवेक की ऐसी मार्मिक बात सुनकर सुमति अपने परिवार श्रद्धा, क्षमा, मार्दव आदि को कहती है कि हम सब सचमुच अनुभव के दास हैं ।। ३ ।।
विवेचन -विवेक की हितकर बात सुनकर चेतन सम्यक्त्वदृष्टि के घर में आये। उस समय समता ने कहा कि हे चेतन ! हम तो अनुभव ज्ञान की दासी हैं।
श्रद्धा, सुमति और चेतना वहीं होती हैं जहाँ चेतन अनुभव होता है। अपने स्वरूप की शक्ति लगाकर समस्त परिवार ज्ञानानन्द की सघनता में लीन हो.गया अर्थात् प्रानन्दघन रूप हो गया ।।४।।
विवेचन--जब तक चेतन को अपनो शुद्ध शक्तियों का वियोग है तब तक उसे परमानन्द को प्राप्ति नहीं हो सकती। श्रद्धा, सुमति और चेतना प्रात्मा की परिणतियाँ हैं। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की शक्ति प्रकट करता है तब वह सुमति आदि स्त्रियों को प्राप्त कर सकता है और क्रोध, मान, माया, लोभ, काम एवं निद्रा आदि अवगुणों को हृदय में से दूर कर सकता है। ज्यों-ज्यों दुर्गुण क्षीण होते हैं, त्यों-त्यों ज्ञान आदि सद्गुणों की वृद्धि होती जाती है। ज्यों-ज्यों अविरति एवं कषाय का जोर घटता है और आत्मा की परिणति शुद्ध होती जाती है, त्यों-त्यों