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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१३४ बीर कहे एती कहा, आए-आए, तुम्ह पास । कहे सुमत परिवार सौं, हम हैं अनुभवदास ।। सलूने० ।। ३ ।। सरधा, सुमता, चेतना, चेतन अनुभव वांहि । सकति फौरि निज रूप की, लीने प्रानन्दघन मांहि ।। .. सलने० ।। ४ ॥ अर्थ--सुमति अपने भ्राता विवेक से पूछती है.कि 'हे मेरे बीर ! मेरे सलोने साजन, मेरे प्रियतम आत्माराम यहाँ आयेंगे अथवा नहीं? हे भाई! आपको मेरी सौगन्ध है, आप सच-सच बताओ कि यहाँ उन्हें सुख प्राप्त हुआ अथवा नहीं ?' सुमति बहन की बात सुनकर प्रत्युत्तर में विवेक कहता है . 'हे सुमति ! वहाँ की कहानी तुम्हें क्या कहूँ, वहाँ का क्या वृत्तान्त सुनाऊँ ? कुछ कहने जैसा नहीं है। वहाँ वे चेतन माया के वशीभूत बने चारों गतियों में भटक रहे हैं ।। १ ।।' विवेचन-उपशम अथवा क्षयोपशम . सम्यक्त्व प्राप्त करके भी प्रात्मा मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्वदृष्टि रूपी स्त्री के घर जाता है। सम्यक्त्वदृष्टि कहती है कि मेरा संग छोड़कर चेतन चतुर्गति में चला . गया। चौथे गुणस्थानक से प्रथम गुणस्थानक में आने पर आत्मा देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरक में जाती है। प्रथम गुणस्थानक में आत्मा भ्रान्ति के कारण कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म को मोक्षप्राप्ति के उपाय मानती है और मिथ्याशास्त्रों को धर्मशास्त्रों के रूप में स्वीकार करती है। सुमति कहती है कि अब यदि चेतन पुनः यहाँ आयेंगे तो उत्तम होगा। यहाँ मेरे पास आने से उनकी चतुर्गति में जाने की रुचि मिट जायेगी। विवेक आगे कहता है कि 'हे बहन सुमति ! अबं पातमराम यहाँ तेरे संयम-प्रासाद में आयेंगे। उधर जाना चारों गतियों में भटकना है और इधर पाना मोक्षरूपी पंचम गति की प्राप्ति है। हे बहन सुमति ! तुम्हारी प्रीति परम सिद्धि रस के परिपाक की सिद्धि है। जो व्यक्ति समता धारण करता है वह तदाकार वृत्तिरूप अपूर्व परिपक्व अवस्था को प्राप्त करता है। श्री ज्ञानसारजी की टीका में 'सिद्धि सिद्धान्त' पाठं है जिसका अर्थ किया गया है --सिद्धान्त से जो सिद्ध हया है ऐसे स्वरूपानुभव सम्बन्धी
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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