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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३७ इतने क्यों मुग्ध हैं ? मोहिनी की पुत्री मिथ्यात्व-परिणति पर उन्हें इतना प्रेम क्यों हैं ? मोहिनी का परिवार रात-दिन जगत् के जीवों का अहित करता है। इस मोहिनी के क्रोध एवं मान दो पुत्र हैं जो लोगों को प्रिय नहीं हैं। वे नित्य लोगों से तिरस्कृत होते हैं, लोग इनके थप्पड़ें लगाते हैं। मोहिनी ने अपनी पुत्री मिथ्यात्व-परिणति का लोभ के साथ विवाह करके उसे अपना दामाद बना लिया है। लोभ नामक दामाद और मिथ्यात्व-परिणति नामक पुत्री के संयोग से माया नामक कन्या का जन्म हुआ है। इस प्रकार मोहिनी के परिवार का विस्तार फैला हुआ है। 'एह बढ्यो परिमोक' के स्थान पर यदि 'यह चड्यो परिमोक' पाठ किया जाये तो अर्थ होगा कि 'इस मोहिनी ने परम पद मोक्ष के अभिलाषियों पर अपने परिवार सहित. आक्रमण कर रखा है।' हे विवेक भाई ! तुम्हारे मित्र मोहिनो के परिवार पर मोहित हैं और व्यर्थ जंजाल बढ़ा रहे हैं जो मुझे सहन नहीं होता ॥२॥ विवेचन-विनाशकारी लोभ, मोक्ष की प्राप्ति में अनेक प्रकार के विघ्न डालता है। समस्त प्रकार के अधर्म का मूल लोभ है। जहाँ लोभ होता है वहाँ सद्बुद्धि नहीं रहती। लोभ के कारण सद्गुण म्लान हो जाते हैं। गुणस्थानकों की उच्च भूमि पर चढ़ने वाले को लोभ हानि पहँचाता है। यदि विचार किया जाये तो लोभ के समान कोई हलाहल विष नहीं है। लोभ-वश मनुष्य देव-द्रव्य, गुरु-द्रव्य एवं ज्ञान-द्रव्य भी भक्षण कर लेते हैं। अतः सुमति कहती है कि हे विवेक ! तुम चेतन स्वामी को सचेत कर दो ताकि वे मोहिनी के परिवार के जाल में न फंसे । योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी ने इस पद्यांश में अत्यन्त सुन्दर तरीके से जीव की विभाव दशा का वर्णन किया है। श्रीमद् ने कषायों का यथार्थ स्वरूप बताकर जिज्ञासुओं को चिन्तन-मनन के लिए तथा स्वयं के सुधार के लिए प्रेरक सामग्री प्रदान की है। सुमति की बात सुनकर विवेक कहता है-हे सुमति ! तू विगत तिथि का मुहूर्त ब्राह्मण को क्या पूछ रही है ? तू बीते हुए समय की बात ज्योतिषी को क्या पूछती है ? जो होना था वह हो चुका। तेरे लिए यह कितना सद्भाग्य है कि तेरा पुत्र वैराग्य तो तेरे अधीन है। उसकी प्रशंसा मैं कितनी बढ़ा-चढ़ा कर करूं ?
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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