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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१३८ श्री ज्ञानसार जी महाराज ने अपनी टीका में अर्थ बताया है कितेरे स्वरूप रूप घर का पुत्र ज्ञानगुण तेरे मत का ही है, तेरे अधीन है। अतः जब चेतन का तुझसे मिलन होगा तब ही वे केवलज्ञान रूप पुत्र का मुंह देख सकेंगे। अत: तू खेद मत कर। चेतन कब तक मोहिनी का परिवार बढ़ायेंगे? यदि उन्हें केवलज्ञान रूप पुत्र का मुंह देखना होगा तो उन्हें तेरे पास आना ही पड़ेगा ।।३। । विवेचन -श्री ज्ञानसार जी महाराज ने 'घर को सुत' का अर्थ 'केवलज्ञान' किया है। अतः तीसरे पद्यांश की अन्तिम पंक्ति की व्याख्या उनके अर्थ के अनुसार ही की गई है। हमने अन्य अनेक विद्वानों की तरह 'घर का सुत' का अर्थ 'वैराग्य' किया है। विवेक ने सुमति को कहा कि बीती तिथि के सम्बन्ध में बार-बार ब्राह्मण (ज्योतिषी) को क्या पूछना ? विवेक के उपदेश से सुमति ने प्रात्म रूप पति से मिलने का उपाय किया और आत्मा में रमण करके उसके पूर्व के सम्पूर्ण साथ को छुड़ा दिया अर्थात् उसने मोहिनी एवं उसके परिवार का साथ छुड़ा दिया तथा परम तत्त्व आत्माराम से प्रीति जोड़कर उन्हें प्रानन्दघन रूप मुक्तिनगरी का साम्राज्य दे दिया। तात्पर्य यह है कि विवेक जाग्रत होने पर आत्मा में समता आ जाती है जिससे कषाय एवं मोह दूर हो जाते हैं। फिर परम पद की प्राप्ति हो जाती है ।।४।। . विवेचन अात्मा ने व्यवहारपूर्वक निश्चय चारित्र सारभूत समत्व का उद्यम करके मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के समूह को दूर किया । समस्त प्रसंगों में समत्व परिणाम धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए । प्रात्मा ने परमात्मा के साथ प्रीति जोड़ कर समस्त कर्मों का क्षय किया जिससे उसने आनन्द के समूह का राज्य प्राप्त किया। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि चारित्र-परिणति के समागम से आत्मा स्वयं तीन भुवन का राजा बना, परमात्मा बना। (५१) (गग-सारंग) अनुभौ तू है हितू हमारो। प्राउ उपाउ करो चतुराई, और को संग निवारो ।। अनुभौ० ।। १ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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