________________
योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २००
एवं वस्त्र पहनना अच्छा लगता है और न समाज में कहीं जाना-माना अच्छा लगता है ||२॥
विवेचन-शुद्ध चेतना का अपने स्वामी के प्रति शुद्ध प्रेम है । अतः उसे आत्मस्वामी के बिना अन्यत्र तनिक भी चैन नहीं पड़ता । शुद्ध चेतना अलौकिक है । वह राग-द्वेष से बाह्य पदार्थों में लिप्त नहीं होती । मनुष्यों को शुद्ध चेतना प्राप्त करनी चाहिए । योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी में अमुक गुरणस्थानक तक अमुक अंशों में क्षयोपशम भाव से अनुभव प्रकट हुआ था । शुद्ध चेतना तथा आत्मा की एक जाति है ।
अर्थ -- शुद्ध चेतना कहती है कि हे चेतनराज ! इस देह रूपी घर की शोभा आपसे ही है । मैं तो आपके घर की दासी हूँ। मैं आपके आने की आशा से अब निराश हो गई हूँ । अब मुझे आपके आने की आशा नहीं रही ||३ ॥
विवेचन --- शुद्ध चेतना अब अपने स्वामी से मिलने के लिए शुद्ध प्रम से निवेदन करती है । आत्मा का ज्ञान होने पर निष्काम प्रेम का द्वार खुलता है । अतः मनुष्यों को 'निष्काम प्रेम के लिए प्रात्म-ज्ञान की उपासना करनी चाहिए । प्रेम के बिना सहज प्रानन्द में प्रवेश नहीं हो सकता । जगत् में सबको आकर्षित करने वाली प्रेम-शक्ति है । शुद्ध • चेतना प्रेम की प्यासी है। वह अपने स्वामी को आकर्षित करना चाहती है । उसका जीवन शुद्ध भाव-प्रारण है । वह अपने असंख्यात प्रदेशी आत्म- स्वामी को मिलने की अधिकारी हो गई है, ।
अर्थ- - शुद्ध चेतना अनुभव को कह रही है कि हे अनुभव जी ! तनिक विचार तो करो। वे चेतन तो कब देखेंगे, पर आप तो देखो । उनकी याद रूपी सार मेरी देह में लगी हुई है । जिस प्रकार सुथार की सार लकड़ी को बींध देती है, उसी प्रकार उनकी याद रूपी सार मेरी देह को छेद रही है ।।४।।
विवेचन - शुद्ध चेतना अनुभव को कहती है कि 'जिसके तन में द्वै भावना की सारड़ी लगती है उसे कितनी वेदना होती है ? चेतन - स्वामी द्वैत भावना की साड़ी से मेरे अन्तर में घोर व्यथा उत्पन्न करते हैं । पति एवं पत्नी की भिन्नता एक प्रकार की हृदय को बींधने वाली सारड़ी है । मेरे स्वामी तथा उनसे मेरी जुदाई तनिक भी सुख -प्रद नहीं है । दोनों में भेद उत्पन्न करने वाली विभाव दशा है । स्वामी का मेरे प्रति भेद-भाव कदापि शान्ति नहीं कर सकता ।'