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श्री श्रानन्दघन पदावली - २८६
परिचय पातक घातक साधुसु
प्रकुशल अपचय चेत । ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करि, परिसीलन नय हेत ।।
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संभव० ।। ४ ।।
कारण जोगे कारण नीपजे, एमां कोइ न वाद । पिरण कारण विरण कारज साधिये, ते निज मति उन्माद || संभव० ।। ५ ।।
सेवन अगम अनूप ।
मुग्ध सुगम करि सेवन आदरे, दीजो कदाचित् सेवक याचना, 'श्रानन्दघन' रस रूप ।।
शब्दार्थ:-धुर ध्रुव, सर्वप्रथम |
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परणामनी = मन के भावों की । लखाव = चिह्न | चरमावर्तन अन्तिम फेर। ।
संभव० ।। ६ ।।
अभय = निर्भय |
अखेद=दुःखरहित
अरोचक = अरुचिकर । अबोध = अज्ञान ।
टिप्पणी :- जीव अखिल लोक के सम्पूर्ण पुद्गलों का स्पर्श एवं त्याग कर चुकता है, वह एक पुद्गल परावर्त्त है । इस एक पुद्गल परावर्त्त में जीव अनन्त द्रव्य, भव और भाव का स्पर्श एवं त्याग करता है । द्रव्य से अनन्त पुद्गल परमाणु, क्षेत्र से लोकाकाश के समस्त प्रदेश, काल से अनन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी, भव से अनन्त जन्म-मरण और भाव से अनन्त अध्यवसायं स्थानों को यह जीव परावर्तता है । इस कालचक्र में भ्रमण करता भव्य जीव किसी समय अन्तिम भ्रमरण चक्र को प्राप्त कर • लेता है ।
विशेष, दाव | भव
शब्दार्थ : -- चरम करण = अन्तिम श्रात्मपरिणाम परिणति = भवस्थिति । परिपाक = परिपक्व होना । प्रवचन वाक = सिद्धान्तवाक्य | परिचय = प्रेम सम्बन्ध । पातक पाप । घातक = नाशक । श्रपचय = नष्ट होना । परिसीलन = भली भाँति गहराई में घुस कर पढ़ना । मुग्ध - भोला, मूर्ख, भोगोपभोग में ग्रासक्त । याचना = माँग, भिक्षा ।
श्रर्थ - भावार्थ:- तृतीय तीर्थंकर श्री सम्भवनाथ को स्तवना करते हुए योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सेवा का मर्म जानकर सब मनुष्यों का प्रथम कर्त्तव्य श्री सम्भवनाथ जिनेश्वर की सेवा-भक्ति करना है । सेवा-भक्ति की प्राप्ति की प्रथम भूमिका निर्भयता, अद्वेष