________________
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८८
योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी अपने हृदय को सान्त्वना देते हुए कहते हैं कि हे अतिशय आनन्द प्रदान करने वाले अनेकान्तवाद के पाम्रफल श्री जिनेश्वर भगवान ! काल-लब्धि तक, भव-भ्रमण की अवधि परिपक्व होने तक, मैं आपके मार्ग की राह देखूगा। मैं आपका सेवक संयम रूपी परमार्थ-जीवन यापन करता हुआ तथा अध्यात्म गुण की निरन्तर वृद्धि करता हुआ दिव्य अमृत फल क (मुक्ति की) आशा के सहारे जी रहा हूँ ।। ६ ।।
विवेचनः --प्रकृति का नियम है कि समय आने पर ही ग्राम पकता है। इसी प्रकार से समय आने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है। यदि सिंचन उचित प्रकार से नहीं किया गया तो आम सूख जायेगा। इसी तरह से प्रात्मार्थी पुरुषार्थ करेगा तो समय आने पर मोक्ष की प्राप्ति होगी; अर्थात् श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञानुसार श्रद्धापूर्वक विषय-कषायों की मन्दता रखते हुए महाव्रतों आदि के पालन के द्वारा जो
आत्मभाव में मग्न रहता है वह शीघ्र ही काल लब्धि प्राप्त करता है। हे जिनेश्वर भगवान! मैं उस समय की प्रतीक्षा में हूँ कि कब मुझे दिव्य चक्षु प्राप्त हों और मुझे दिव्य दर्शन हो जाये। मुझे पूर्ण आशा है कि आनन्दघन रूपी आम्रफल समय आने पर अवश्य पकेगा। इसी पालम्बन से मैं जीवन यापन कर रहा हूँ ।। ६ ।।
(३ ).
श्री सम्भव जिन स्तवन (राग-रामगिरि, रातड़ी रमीने किहांथी प्राविया, ए देशी). संभव देव ते धुर सेवो सब रे, लहि प्रभु-सेवन भेद । सेवन कारण पहिली भूमिका रे, अभय, अद्वष, अखेद ।।
संभव० ।। १ ।। भय चंचलता जे परणामनी रे, द्वष अरोचक भाव । खेद प्रवृत्ति करता थाकिये, दोष अबोध लखाव ।।
संभव० ।। २ ।। चरमावर्तन चरमकरण तथा, भव परिणति परिपाक । दोष टले वलि दृष्टि खुले भली प्राप्ती प्रवचन वाक ।
संभव० ।। ३ ।।