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श्री आनन्दघन पदावली-२८७
गुरुयों की परम्परा के अनुभव की ओर यदि देखें तो प्रतीत होता है कि अन्धा अन्धे के पीछे भागा जा रहा है। पारस्परिक निन्दा में अनेक परम्पराएँ राग-द्वेष की वृद्धि करने वाली हैं। वे अन्धों के पीछे अंधों की दौड़ के समान हैं। यदि आगमों के आधार पर, सिद्धान्तों के अनुसार मार्ग का विचार किया जाये तो चरण रखने के लिए भी कहीं स्थान नहीं है। तात्पर्य यह है कि आगमों के अनुसार कषायों आदि पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन कार्य है ॥३॥
तर्क के आधार पर आपके मार्ग का विचार किया जाये तो वादों की परम्परा ही दृष्टिगोचर होगी। अतः तर्क से आपका मार्ग प्राप्त करना असम्भव है। · इच्छित मार्ग, प्रभु के मार्ग का यथार्थ स्वरूप बताने वाले तो संसार में विरले ही हैं। प्रात्मानुभूति के बिना मार्ग का स्वरूप कौन बता सकता है ? ॥ ४ ॥
यथार्थ मार्ग बताने वाले दिव्य (अलौकिक) नेत्रों का तो इस समय अभाव ही है, किन्तु इस समय तो क्षयोपशम योग्यता के अनुसार जिनमें न्यूनाधिक ज्ञान-संस्कार हैं, वे ही श्रद्धा के आधार हैं ।। ५ ।।
_ विवेचन --अपने आराध्य प्रियतम के लिए श्रीमद् का हृदय तड़प रहा है। उनकी खोज में बे आचार्यों के पास जाते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, तर्क करते हैं परन्तु आराध्य का मार्ग उन्हें नहीं मिलता। इस समय तो जो साधन उपलब्ध हों उनसे हो लाभ उठाना चाहिए ।। ५ ।।
द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ प्रभु के उस मार्ग को श्री आनन्दघनजी योगिराज निरन्तर निहारते रहे जिस मार्ग से उन्होंने सिद्धि प्राप्त की थी। ऐसे श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज के चरणों में वन्दना ।
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