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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६२
अर्थ-भावार्थ-विवेचन -श्रीमद् आनन्दघन जी अपनी आत्मा को सम्बोधित करके कहते हैं कि शुद्ध उपयोग रूपी शुद्ध प्रज्ञा की छैनी ग्रहण करके तुम हृदय में सोऽहं का जाप करो, एक क्षण के लिए भी सोऽहं को मत बिसरायो। सोऽहं का पूर्णतः सम्यग अर्थ जानकर हे चेतन ! तुम मोह को दबा दो, जिससे समभाव का समय आयेगा। मोह के विचारों की तरंगें मन में उठते ही उन्हें रोकना चाहिए। मोह के कुविचारों की प्रबलता का निवारण करने के लिए 'सोऽहं' का जाप करना चाहिए। 'सोऽहं' का ज्ञान करने पर उपयोगपूर्वक एकाग्रता से जाप करने से समभाव को वृद्धि होती है। जब तक चित्त 'सोऽहं' के जाप के उपयोग में रहता है, और उसमें ही लीन बना रहता है, तब तक मोह के विचार आते ही नहीं। जब चित्त सोऽहं के उपयोग के आलम्बन से च्युत हो जाता है, तब मन में मोह की परिणति का उदय होता है। सोऽहं के जाप से आत्मा प्रति पल, अनन्तगुनी विशुद्ध बनती है और समभाव रूपी सरोवर. को प्रकट करती है, जिसमें आनन्द-रस का पान करके त्रिविध तापों का शमन करती है ॥३॥
अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जो कहते हैं कि हे चेतन ! तुम कुलटा, कुटिल एवं दुबु द्धि कुमति का परित्याग करो। इसका परित्याग ही चारित्र का परिचायक है। आत्मा के धर्म को छोड़ कर पर जड़वस्तु-सम्बन्धी राग-द्वेष करना ही कुमति का लक्षण है। राग-द्वेष का प्रचार रोक कर अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करना ही आत्मा का मुख्य धर्म है। आत्मा अपने स्वभाव में रमण करे तो उस पर कर्म के आवरण नहीं लग सकते । अनन्त मुनिगण अपने शुद्धात्म स्वरूप में रमण करके मुक्त हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन ! तुम तो आत्म-स्थान में बैठो, स्थिर होकर समस्त कर्मों का क्षय करके स्वयं का उद्धार करो और अन्य व्यक्तियों को भी पालम्बन देकर उनका भी उद्धार करो। अब तो समस्त पर-भाव का परित्याग करके अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान करो और उसमें ही तन्मय बनो ॥४॥
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( राग-कल्याण ) या पुद्गल का क्या विसवासा, है सुपने का वासा.रे ।
या० ।।