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श्री आनन्दघन पदावली-२६३
चमत्कार बिजली दे जैसा, पानी बिच्च पतासा। या. देही का गर्व न करना, जंगल होयगा वासा ।।
_ या० ।। १ ।। जूठे तन धन जूठे जोबन, जूठे हैं घर वासा । 'प्रानन्दघन' कहे सब ही जूठे, सांचा शिवपुर बासा ।।
या० ।। २ ।। टिप्पणो -यह पद भी श्रीमद आनन्दघन जी की भाषा एवं शैली से नहीं मिलता। श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने इसे दिगम्बर जैन कवि श्री भूधरदास का माना है।
अर्थ-भावार्थ-विवेचन -योगिराज श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि इस देह रूपी पुद्गल का क्या विश्वास करें? जैसे स्वप्न में किसी हवेली में निवास करने का भास हुअा हो और आँख खुलने पर उसमें से कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। उसी प्रकार यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली देह भो क्षणभंगुर है, अतः इसका क्या विश्वास करें ? अनेक प्रकार के रोगों से देह क्षीण होती है, उसका क्षय होता है। चाहे जितने उपाय करने पर भी देह का अन्त में क्षय हो जाता है। आकाश में विद्युत् की चमक के समान देह का भी अचानक नाश हो जाता है। जिस प्रकार पानी में बताशा पल भर में गल जाता है, उस प्रकार देह भी अचानक क्षण भर में नष्ट हो जाती है। ऐसी नश्वर देह का, क्षणिक देह का गर्व करना सर्वथा अनुचित है। इस देह का अन्त में जंगल में वास होगा, अर्थात् इसे जंगल में लेजा कर जला दिया जायेगा। अतः इस के प्रति हमें ममता नहीं रखनी चाहिए। श्रीमद् आनन्दघन जी अपनी आत्मा को कहते हैं कि हे चेतन ! बाह्य पदार्थों पर ममता रखना सर्वथा अनुचित है। तन, धन एवं यौवन असत्य हैं, घर, हवेलो, महक आदि सब असत्य हैं क्यों कि ये जड़ वस्तु आज तक किसी के साथ नहीं गई और न जायेंगी।
आत्म-तत्त्व के अतिरिक्त समस्त वस्तुएँ असत्य हैं। केवल मुक्त होकर मोक्ष में निवास करना ही सत्य है। अतः हे चेतन ! समस्त पर वस्तुओं के प्रति ममत्व त्याग कर अपने शुद्धात्म स्वरूप में रमण कर ॥