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श्री प्रानन्दघन पदावली - ११६
दासता की, परन्तु चेतन से प्रीति जोड़ने के पश्चात् मैंने अन्य समस्त पदार्थों के साथ प्रेम-सम्बन्ध तोड़ डाला है । अब तो केवल शुद्ध चेतन के प्रति दृढ़ प्रेम उत्पन्न हुआ है । मुझे अनुभव हुआ है कि मेरे चेतन - स्वामी ही सुख के सागर हैं ।
मेरा लोकलज्जा से कोई सम्बन्ध नहीं है । कुलमर्यादा का मैंने परित्याग कर दिया है । मार्ग के पथिक लोग (विभाव परिणतियाँ) भले ही मेरी हँसी करें, मुझ कोई चिन्ता नहीं है, क्योंकि दूसरों की हँसी उड़ाना तो लोगों का स्वभाव है । स्वयं के अवगुण कौन देखता है ? यदि देख भी ले तो दूसरों के समक्ष कौन प्रकट करता है ? ||२॥
विवेचन - सुमति कहती है कि अब मेरा मन अन्तर से लोगों के विरुद्ध कार्य करता है । अतः मैंने समस्त संगति का परित्याग करके अपने आत्म-स्वामी के साथ प्रीति जोड़ी है और लोक-लज्जा का परित्याग कर दिया है । मेरे चेतन स्वामी के प्रेम में विघ्न डालने वाली कुल मर्यादा को छोड़ कर मैंने आत्म - स्वामी के प्रेम का मार्ग अंगीकार किया है । मुक्ति-मार्ग के प्रति अरुचि रखने वाले करें तो भी मैं पीछे नहीं हटने वाली । आत्म-स्वामी के प्रेम से हटने वाली नहीं हूँ ।
लोग चाहे हँसे, मेरा उपहास संसार कुछ भी कहे, परन्तु मैं
माता, पिता, सज्जन, स्वजन, तथा जाति वाले लोग सब भोली बातें करते हैं । जिस सत्संगति का एक बार पान कर लिया है, उन सज्जनों की सत्संगति कैसे छूट सकती है ? ।।३।।
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विवेचन - सुमति कहती है कि माता, पिता, स्वजन आदि जानते हैं कि सुमति को हम बाह्य जगत् में ललचाकर अपने सम्बन्ध में रखेंगे, परन्तु मैं तो सब जानता हूँ जिससे बाह्य जड़ पदार्थों के प्रति राग-द्वेष रखकर फँसने वाली नहीं हूँ । जड़ पदार्थों में जड़ता व्याप्त है । उनका मैंने अनन्त काल तक अनुभव लिया, परन्तु उनसे स्थायी सुख नहीं मिला पर ज्यों-ज्यों मैं अपने चेतन स्वामी के परिचय में आने लगी, त्यों-त्यों मुझे स्थायी सुख का प्रभास अनुभव होने लगा । चेतन स्वामी के अनुभव की वृद्धि होने के साथ मेरे अन्तर में आनन्द का सागर उमड़ने लगा । जब अपने आत्म-स्वामी के साथ स्थिरोपयोग में स्थिर हुई तब मुझे अनन्त सुख की झलक दिखाई दी । मुझे अपूर्व आनन्द रस के स्वाद की अनुभूति होने लगी । अब मैंने आनन्द रूप अमृतरस का आस्वादन कर लिया है । मैंने उक्त आस्वादन शुद्ध चेतन की संगति से किया है ।