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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२० अब तो उन चेतन स्वामी, मेरे प्रियतम का साथ कदापि नहीं छट सकता। अब तो मैं उनकी संगति में ही लीन रहूंगी। अन्य लोगों के द्वारा अर्थात् प्रलोभनों के द्वारा मुझ सुमति को उपालम्भ क्यों कहलवा रहे हो, क्यों मुझे दूर हटा रहे हो ? मैंने किसी की चोरी तो नहीं की, मैंने कोई बुरा कार्य तो नहीं किया। जिसने कच्छ पहन लिया है उसे तो नाचना ही होगा अर्थात् जिसने जो कार्य करना सोच लिया है उसे तो वह करेगा ही। अर्थात् जिसने चैतन्य शक्ति से मन लगा रखा है उसे तो चेतन को अनावरण करना ही होगा। आत्मानुभवी का हृदय अपने लक्ष्य से कैसे च्युत हो सकता है ? अतः मुझे उपालम्भ देना व्यर्थ है। मेरा लक्ष्य एक मात्र उस नटनागर चेतन की ओर है ॥४॥ विवेचन-सुमति कहती है कि मैंने चेतन स्वामी के साथ जो सम्बन्ध किया है उसमें किसी की चोरी नहीं की। अनेक जीव द्रव्यस्वामियों के साथ सम्बन्ध रखकर निराश हुए। भाव-स्वामी आत्मा के रूप में माने जाते हैं । आत्म-स्वामी का. सम्बन्ध स्थायी सहज सुख प्रदान करता है। अतः मैंने तो आत्म-स्वामी के साथ जो सम्बन्ध जोड़ा है उसे मैं कदापि नहीं छोड़गी। संसार क्या कहेगा-यह मुझे नहीं देखना है। मैं तो अपने शुद्ध चेतन-स्वामी में लीन होऊंगी। ज्ञान रूपी सागर के मन्थन से विश्व-प्रेम रूपी अमृत से भरी कटोरी प्राप्त हुई है। श्रीमद् आनन्दघन जी योगिराज कहते हैं कि मेरी दृष्टि रूपी चकोरी आनन्दधाम चेतन रूप चन्द्रमा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होती है ॥५॥ विवेचन --सूमति कहती है कि ज्ञान-सिन्धु का मन्थन करके अर्थात् श्रुतज्ञान रूप सागर का मन्थन करके सार निकाला कि आत्मा में रमरण करना चाहिए। जड़ वस्तुओं का प्रेम मिथ्या है। आत्मा के प्रति प्रेम रखने से बाह्य वस्तुओं का प्रेम छटता है और आत्मा में अमृत रस की खमारी प्रकट होती है, अत: आत्मा के प्रति प्रेम रखना ही सचमुच उचित है। शुद्ध चेतन की दृष्टि रूपी चकोरी आनन्दघन चन्द्रमा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होती है। जिस प्रकार चकोरी चन्द्रमा की ओर दृष्टि करके अमृत-पान करती है, उसी प्रकार सुमति भी आत्मा को देखकर आनन्द रूपी अमृत का पान करती है। सुमति अपनें आत्म-स्वामी का स्वरूप निहारती है, उसका अनुभव करती है और प्रति पल अनन्त कर्मों
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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