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श्री आनन्दघन पदावली-१२१ की निर्जरा करती है। वह अपने प्रात्म-स्वामी के असंख्यात प्रदेशों में निवास करके उनके अंग निर्मल करती है। उनकी मलिनता नष्ट करके बारहवें गुणस्थानक के अन्त में उन्हें शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा बनाती है। सादि अनन्त काल पर्यन्त सुमति क्षायिक भाव से प्रात्म-प्रभु के साथ सिद्ध स्थान में रहती है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के ये उद्गार सचमुच विचारणीय हैं।
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. ( वसन्त-धमार ) साखी-प्रातम अनुभव रस कथा, प्याला पिया न जाइ । मतवाला तो ढहि परे, निमता . परै पचाइ । छबीले लालन नरम कहें, प्राली गरम करत कहा बात ।। मां के प्रागइ मामू को, कोइ वरन न करत गवारि । अजहू कपट के कोथरा, कहा कहे सरधा नारि ।।
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छबीले० ॥१।। चौगति . माहेल न छारही, कैसे आये भरतार । खानो न पीनो बात मैं हसत मानत कहा हार ॥
छबीले० ।।२।। ममता खाट परे रमे, अोनीदे दिन रात । लेनो न देनो इन कथा, भोरे ही आवत जात ।।
छबीले० ।।३।। कहे सरधा सुनि सामिनो, एतो न कीजे खेद । हेरइ हेरइ प्रभु आवही, बढ़े 'प्रानन्दघन' मेद ।।
छबीले० ॥४॥ अर्थ-आत्मानुभव रूपी रस-कथा का प्याला पिया नहीं जा सकता। इसे पीना अत्यन्त दुष्कर है। जो मताग्रही लोग हैं, जिन्हें अपने-अपने मत का महत्त्व है, जो अपने मत का दुराग्रह रखते हैं अर्थात् जो सांसारिक मोह-माया में पड़े हुए हैं वे तो इस प्याले को पी नहीं सकते, अथवा पीते ही लुढ़क जाते हैं और जो लोग मताग्रह से रहित हैं, जिन्हें