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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२२
सांसारिक बातों में रुचि नहीं है, जो सच्चा है वह मेरा है-यह समझते हैं, वे इस आत्मानुभव रूपी रस-कथा का प्याला पीकर पचा लेते हैं, उसे अपने जीवन में उतार लेते हैं और अपनी आत्मा में तल्लीन हो जाते हैं। यदि कोई इस रस की अभिलाषा लेकर आता है तो उसे भी इसका पान करा देते हैं वरन् प्रात्मानन्द में ही मग्न रहते हैं। ऐसी दशा में जन साधारण को आत्मानुभव रूपी रस-कथा का पान दुर्लभ ही है (साखी)
विवेचन-श्रीमद् अानन्दघन जी ने इस साखी की अनुभव-ज्ञान के उद्गारों से रचना की है। इस साखी का अर्थ इतना गम्भीर है कि इस पर एक ग्रन्थ की रचना की जा सकती है। अध्यात्मज्ञानरस के अधिकारी के बिना अन्य कोई व्यक्ति पारे की तरह अध्यात्म-ज्ञान को पचा नहीं सकता। अध्यात्मानुभव रस-कथा का प्याला पिये बिना सांसारिक दुःखों से निवृत्ति नहीं हो सकती। यदि राग-द्वेष को नष्ट करना हो तो अध्यात्म ज्ञानानुभव रस-कथा का प्याला पीना आवश्यक है। इसके लिए योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि एकान्त का त्याग किये बिना अध्यात्मानुभव रस प्याला पीने की योग्यता नहीं आती। एकान्त व्यवहारनय को मानने वाले मतवाले कहलाते हैं। एकान्त व्यवहार में धर्म मानने वाले अध्यात्म-ज्ञान रस का प्याला पीते हैं, परन्तु व्यवहार के दुराग्रह से उन्हें अध्यात्म रस पचता नहीं है। अध्यात्म ज्ञान के रस को पचाना कोई सामान्य बात नहीं है। जिस व्यक्ति में सद्गुणों की योग्यता न हो, जिसे अध्यात्म के प्रति रुचि न हो, उसके समक्ष अध्यात्म ज्ञान की कथा करने से उलटा उसका अहित होता है।
___ जो लोग निश्चय-नय का यथार्थ स्वरूप नहीं समझते और जो व्यवहार-धर्म के अधिकार के अनुसार हुई क्रियाओं का परित्याग करते हैं, वे अध्यात्स रस कथाएँ श्रवण करके शुष्क अध्यात्मज्ञानी बनते हैं और इस कारण वे अन्तर की रमणता के बिना कथनी एवं करनी की भिन्नता के कारण अध्यात्मानुभव रस कथा को पचा नहीं सकते ।
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये सात नय हैं। इनसे धर्म का स्वरूप समझे बिना और सात नय-कथित धर्म के प्रति श्रद्धा किये बिना एकान्त मत का दुराग्रह नहीं टलता। जिसने ज्ञान की निर्ममत्व एवं दुराग्रह रहित दशा प्राप्त की है, वह अध्यात्मज्ञानरस का प्याला पी सकता है और पचा सकता है। इस प्याले को पचाने वाला व्यक्ति व्यवहार एवं निश्चयनय-कथित धर्म-तत्त्व