________________
श्री आनन्दघन पदावली-१२३
की व्याख्याओं को उन नयों की अपेक्षा समझता है और उन पर श्रद्धा रखता है। वह किसी नय की बात को पकड़ कर दुराग्रह नहीं करता। वह नौ तत्त्वों, षड्-द्रव्यों आदि को समझ सकता है। जो व्यक्ति अध्यात्म रस के प्याले का पान करके उसे उचित प्रकार से पचा सकता है, वह जगत् का शहंशाह बनता है। उसे अवधत दशा का अनुभव हो जाता है। वह नित्य मतवाला रहता है। वह समता का अनुभव प्राप्त कर सकता है और उसको आत्मा के प्रति अत्यन्त विशुद्ध प्रेम हो जाता है, जिससे वह आत्मा के अनुभव प्रदेश में उतरने का प्रयत्न करता है और सहजानन्द को प्राप्त करता है ।
इस पद्यांश में सुमति एवं श्रद्धा में वार्तालाप हो रहा है। सुमति कहती है कि हे श्रद्धे ! तू छबीले लाल मेरे पति चेतन को नरम कहती है किन्तु जहाँ तक विभाव दशा है वहाँ तक तो यह कषायों से तप्त है, गर्म है। हे सखि ! बता छबीले प्रांत्माराम का मोह-ताप रूप गर्म बात करने का अन्य क्या कारण है ? हे सखि ! माँ के समक्ष मामा के गुरणदोषों का वर्णन कोई गँवार ही किया करता है क्योंकि भानजे की अपेक्षा उसकी बहिन उसे अधिक जानती है। इसी तरह हे श्रद्धे ! मैं तेरी अपेक्षा अपने पति के गुण अधिक जानती हूँ। तेरा तो प्रत्येक बात पर विश्वास करने का स्वभाव सा हो गया है, परन्तु मैं गुण-दोषों की भलीभाँति परीक्षा करती हूँ। वह नर्म-गर्म जैसे भी हैं, उन्हें मैं अच्छी तरह जानती हूँ। अरी भोली! वह अब भी कपट का बोरा है। तू उसका सर्वविरति रूप देखकर उसे नर्म कह रही है, यह तेरी भूल है। सुमति की यह बात सुनकर श्रद्धा अब क्या कहे ? ॥१॥
विवेचन-सुमति ने श्रद्धा को कहा कि मेरा चेतन स्वामी अब भी कपट की गठरी बाँधे हुए है। तू अपने स्त्री-सुलभ स्वभाव के कारण ही मुझे बार-बार कह रही है कि छबीले लाल नर्म हैं, परन्तु उनके लक्षण मुझसे छिपे हुए नहीं हैं।
सुमति कहती है कि हे श्रद्धे ! मेरे भरतार, छबीले लाल चतुर्गति रूप महल को छोड़ नहीं रहे हैं, फिर मेरे पास कैसे आये ? विरह की इन बातों में मुझे खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। हे सखि ! प्रीतम को नर्म कहकर इसी तरह मेरी हँसी करना मेरी हड्डियों को चकनाचूर करना है। पति-वियोग में शरीर का रुधिर और मांस तो पहले ही चला गया। तेरी इस हँसी से अब हड्डियों का नाश हो रहा है ॥२॥