________________
श्री प्रानन्दघन पदावली-३४७
प्रार्थना करता.हूँ। आपके बिना मुझे आत्म-तत्त्व समझाने वाला अन्य कौन है ? ॥ ७ ॥
अर्थ-भावार्थ-इसके उत्तर में जग-गुरु श्री मुनिसुव्रत स्वामी इस प्रकार कहते हैं कि समस्त मत-मतान्तरों का पक्षपात छोड़ कर, राग-द्वेष एवं मोह उत्पन्न करने वालों से रहित होकर केवल आत्मा से प्रीति लगायो, उसमें तन्मय हो जायो ।। ८ ।।
विवेचन-प्रात्मा अनुभव-गम्य है, वाक्-पटुता अथवा वाणीविलास का विषय नहीं है। प्रात्मानुभव होने पर समस्त विवाद समाप्त हो जाते हैं, चित्त समाधि में लीन हो जाता है ।
अर्थ-भावार्थ -जो कोई व्यक्ति प्रात्मध्यान करता है, एकाग्रता से चिन्तन करता है वह इन वादों के चक्कर में नहीं आता। अन्य तो सब वाग्-जाल हैं, वाक्-पटुता है। वास्तव में, तत्त्व वस्तु तो आत्म-चिन्तन ही है, जिसकी चित्त सदा इच्छा करता है ।। ६ ।।
अर्य-भावार्थ-जिन्होंने सद-असद का विवेकपूर्वक विचार करके आत्म-चिन्तन के पक्ष को ग्रहण किया है, वे ही तत्त्वज्ञानी हैं। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे श्री मुनिसुव्रत जिनेश्वर ! यदि आपको कृपा हो तो मैं भी अनन्त आनन्द पद अर्थात् मोक्ष-पद को प्राप्त कर सकूगा ।। १० ।।
( २१ )
श्री नमिनाथ जिन स्तवन (राग-प्रासावरी-धन धन सम्प्रति सांचो राजा-ए देशी) - षड् दरसण जिन अंग भणीजे, न्यास षडंग जो साधे रे । नमि जिनवर ना चरण उपासक, षड्दरसण पाराधे रे ।
षड्० ।। १ ॥ जिन सुरपादप पाय वखाणो, सांख्य जोग दुय भेदे रे । . आतम सत्ता विवरण करतां, लहो दुग अंग अखेदे रे ।
षड़० ।। २ ॥