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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४८ %3D भेद-अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दुय कर भारी रे । लोकालोक अलंबन भजिये, गुरुगम थी अवधारी रे।... षड्० ॥ ३ ॥ लोकायतिक कूख जिनवर नी, अंस विचार जो कीजै रे। . तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजै रे। षड्० ॥ ४ ॥ जैन जिणेसर वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षर न्यास धरी आराधक, पाराधे गुरु-संगे रे।। षड्० ॥ ५॥ जिनवर मां सघला दरसण छे, दरसण जिनवर भजना रे। सागर मां सघली तटनी छे, तटनी, सागर भजना रे। ... षड्० ।। ६ ॥ जिन सरूप थइ जिन पाराधे, ते सहि जिनवर होवे रे । भंगी इलिका ने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे । . . , षड्० ॥ ७ ॥ चूरणि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परम्पर अनुभव रे । समय पुरुष नां अंग कह्यां ए, जे छेदे ते दुर भव रे । . षड्० ।। ८ ।। मुद्रा बीज धारणा अक्षर, न्यास अरथ विनियोगे रे । जे ध्यावे ते नवि वंचीजे, क्रिया अवंचक भोगे रे । षड्० ।। ६ ।। श्रुत अनुसार विचारी बोलू, सुगुरु तथा विधि न मिले रे । .. किरिया करि नवि साधी सकिये, ए विखवाद चित्त सबल्ले रे । षड्० ॥१०॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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