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श्री आनन्दघन पदावली-३४६
ते माटे ऊधो कर जोड़ो, जिनवर पागल कहिये रे । समय-चरण सेवा सुध दीज्यो, जिम 'प्रानन्दधन' लहिये रे ।
षड्० ।।११।।
शब्दार्थ--षड्दरसण=छह दर्शन–सांख्य, योग, मीमांसा, बौद्ध, चार्वाक और जैन । न्यास-स्थापना। षडंग=छह अंग-दोनों जंघा, दोनों बाहु, मस्तक, छाती। सुरपादप कल्पवृक्ष । पाय=पर। विवरण=विवेचन । दुग=दो। अखेदे रे खेद रहित । अलंबन= प्राधार । अवधारीधारण करो लोकायतिक = चार्वाक दर्शन-बृहस्पति प्रणीत नास्तिक मत। कूख=कुक्षि । उत्तम अंग मस्तक । भजना रे = कहीं है, कहीं नहीं है। तटनीनदी। भृगी-भ्रमरी। चटकावे डंक मारता है। दुर भव रे=बुरी गति में जाता है। छेदे --अमान्य करे। विखवाद=दुःख । सबले रे=बलवान । आगल=सम्मुख ।
टिप्पणी-इस स्तवन में छह दर्शनों का समन्वय बताया गया है।
अर्थ-भावार्थ -हाथ, पैर, पेट, मस्तक आदि अंग मिलकर शरीर बनता है, उसी प्रकार षट् दशनों. को (सांख्य, योग, बौद्ध, मीमांसा, चार्वाक और जैन) जैनदर्शन के अंग कहना चाहिए। इन षट् दर्शन रूप अंगों को श्री नेमिनाथ जिनेश्वर के अंगों पर स्थापित करके जो साधना करते हैं वे छहों दर्शनों को आराधना करते हैं, उपासना करते हैं ।। १ ।।
विवेचनः-षट् दर्शन नमिनाथ भगवान के ही अंग हैं अर्थात् उनकी एकान्त विचारधारा का समन्वय जैन दर्शन में हो जाता है।
. अर्थ-भावार्थ -इस दूसरे पद्यांश में षडंग न्यास को रीति बताई गई है। जिन तत्त्व-ज्ञान रूपी कल्पवृक्ष के सांख्य एवं योग दोनों दर्शन मूल रूप चरण-युगल कहे गये हैं। इन दोनों दर्शनों को निस्संकोच जिन तत्त्व ज्ञान रूपो कल्पवृक्ष के अंग समझे ।। २ ।।
अर्थ-भावार्थः-बौद्ध दर्शन प्रात्मा को क्षणिक मानता है और मोमांसा दर्शन प्रात्मा को अभेद मानता है। ये दोनों दर्शन जिनेश्वर कल्पवृक्ष के दो विशाल हाथ हैं। बौद्ध दर्शन का अवलम्ब लोक-व्यवहार है, यह व्यवहार नयवादी है। मीमांसा का आधार अलौकिक है, यह निश्चयवादी है। ये बातें गुरु-मुख से समझे।