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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३५० जैन-दर्शन पुद्गल पर्यायों की अपेक्षा आत्मा को बदलती हुई कहता है। मीमांसक आत्मा को एक ही मानते हैं। जैन दर्शन समस्त आत्माओं की सत्ता एक रूप होना मानता है। निश्चय नय से आत्मा का रूप प्रबंध है, शुद्ध है। इस प्रकार ये दोनों दर्शन जिन तत्त्व दर्शन. के अंग रूप हाथ हैं ।। ३ ॥ अर्थ-भावार्थः-किसी अपेक्षा से सोचा जाय तो वृहस्पति-प्रणीत चार्वाक दर्शन जिनेश्वर भगवान की कुक्षि है । आत्म-तत्त्व के विचार रूप अमृत रस की धारा का सद्गुरु से समझे बिना कैसे पान किया जा सकता है ? वृहस्पति-प्रणीत चार्वाक दर्शन धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक तथा पुनर्जन्म को नहीं मानता। वह तो चार तत्त्वों के मेल से उत्पन्न चैतन्य शक्ति को मानता है। इस इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण विचार की मान्यता के कारण चार्वाक दर्शन को जिनेश्वर भगवान की कुक्षि माना है। आत्म-तत्त्व विचार रूपी अमृत-रस का पान तो सद्गुरु के द्वारा ही हो सकेगा ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थः-जैन दर्शन श्री जिनेश्वर भगवान का उत्तम अंग अर्थात् मस्तक है। जिस प्रकार मस्तक समस्त अंगों के ऊपर बाहर दिखाई देता है और भीतर सुविचारों का भण्डार है, उसी प्रकार अन्तरंग में जैन दर्शन राग-द्वेष, मोह, अज्ञान और मिथ्यात्व रहित वीतराग भाव प्रदर्शित करने वाला तथा बाहर चारित्रधर्मी सर्वोत्तम एवं सर्वोपरि है। जैन दर्शन के आराधक सद्गुरु की संगति से अक्षर न्यास के द्वारा, जिनभाषित आगमों के द्वारा बिना किसी परिवर्तन के इनकी आराधना करते हैं, उन पर आचरण करते हैं और जिनेश्वर भगवान के आदेशानुसार चलते हैं ॥५॥ अर्थ-भावार्थः - जैन दर्शन में अन्य समस्त दर्शनों का समावेश हो जाता है, किन्तु अन्य दर्शनों में जैन दर्शन एक अंश मात्र है। जिस प्रकार सागर में समस्त नदियों का समावेश हो जाता है, किन्तु नदी में सागरत्व अंश मात्र है। अन्य दर्शनों में जैन दर्शन अंश रूप से है और जैन दर्शन में अन्य दर्शनों का समावेश हो जाता है। अतः श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि अन्य दर्शनों में खण्डनात्मक दृष्टिकोण न रख कर जैन दर्शन को सर्वोपरि जानकर इसकी आराधना करो ॥ ६॥ . अर्थ-भावार्थः--जो मनुष्य वीतराग बनकर श्री जिनेश्वर भगवान की आराधना करते है, वे निश्चय ही जिनेश्वर बन जाते हैं, जिस प्रकार
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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