SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६७ पाँच पचीस पचास हजारी, लाख करोरी दाम । खाये खरचे दिये बिनु जात हैं, प्रानन करि करि श्याम ॥ हमारी० ॥२॥ इतके न उतके सिव के न जिउ के उरझि रहे दोउ ठाम । संत सयानप कोई बतावे, प्रानन्दघन गुणधाम ।। हमारी० ॥३॥ विशेष -भाषा एवं शैली की भिन्नता के कारण उपयुक्त पद शंकास्पद है। सम्भव है यह पद भक्त कवि आनन्दघन का हो । ...अर्थ -मेरी लगन भगवान के नाम-स्मरण से लगी है। भगवान के ज्ञानादि गुणों के स्मरण में मेरा मन लीन है। यह मेरा सालम्बन ध्यान है जिसमें मैं तन्मय होता हूँ। मुझे बादशाहों के आम और खास दरबारों में जाने और बादशाह के एकान्त स्थान में जाकर प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा नहीं है और न मैं न्यायालय का अधिकारी बनना चाहता हूँ, क्योंकि मेरा मन तो भगवान के स्मरण में लीन है ॥१॥ ___- विवेचन --योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज बता रहे हैं कि उन्हें भगवान के नाम की लगन लगी है। अरिहन्त, सिद्ध के स्मरण में मन लगाने से भगवान के ज्ञानादि गुणों का स्मरण होता है। भगवान के नाम का स्मरण करने से आत्मा की शक्तियाँ विकसित होती हैं, आत्मगुणों की वृद्धि होती है तथा भगवान के प्रति प्रेम प्रकट होता है। वे राजा-महाराजाओं के दरबारों में तथा न्यायालयों आदि में जाकर प्रतिष्ठा प्राप्त करना नहीं चाहते। उनका चित्त संसार में नहीं लगता। अर्थ संसार में मानव पाँच हजार, पच्चीस हजार और पचास हजार, यहाँ तक कि लाखों-करोड़ों रुपये एकत्र करने में लगा रहता है और बिना खाये, उस धन का उपभोग किये बिना अपने मुंह पर कालिख लगा कर चला जाता है। सारा समय तृष्णा के चक्कर में लगाकर मानव अपनी आयु खो देता है। बिना भगवान का भजन-स्मरण किये ही वह संसार से चला जाता है ॥२॥ विवेचन--मनुष्य अपनी सम्पत्ति का उपयोग किये बिना, सुपात्र को दान दिये बिना, अपने धन के भण्डार यहीं छोड़ कर चले जाते हैं।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy