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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६६ आने से रोकता है। अब मैं क्या करू ? जब तक मेरे स्वामी मेरे स्थिरता रूप घर में नहीं पायेंगे तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी। मैं अपने स्वामी की आज्ञानुसार अपनी किसी भी भूल के लिए प्रायश्चित्त करने के लिए तत्पर हूँ। अर्थ--हे नायक ! चेतन ! ये सांसारिक प्रलोभन बाण के समान प्राणों पर प्रहार करने वाले हैं। इस दृश्य को देखने के लिए न तो आँखों में काजल लगाने की आवश्यकता है और न लोक-लाज की रुकावट है। प्रलोभन स्वेच्छा से नहीं रुकते और इन्हें रोकने वाला कोई विरला ही होता है ।।२।। विवेचन- हे सखी समता ! स्वामी से मिलने की मेरी उत्कट इच्छा है। मैं जहाँ-तहाँ स्वामी का ही मनन करती हूँ। चेतना अपने आत्म-स्वामी का स्वरूप बार-बार सोचती है। आठवें गुणस्थान से क्षपक श्रेणी का तथा शुक्ल ध्यान का प्रारम्भ होता है। शुक्ल ध्यान में शुद्ध चेतना अपने चेतन स्वामी के साथ एकता का अनुभव करती है, तो भी तेरहवें गुणस्थानक को प्राप्त किये बिना वह अपने चेतन स्वामी को साक्षात् मिल नहीं सकती। मोहनीय कर्म के उदय से चेतन ऊपर के गुणस्थानक में चढ़कर पुनः गिर जाता है। उस विरह के कारण चेतना की ऐसी दशा हुई है। अर्थ -जगत् को ठगने वाली मोहिनी ने मेरे मन-मोहन चेतन को ठग लिया है। हे आनन्दघन प्रभो! आप मेरी सहायता करें। आपकी सहायता से ही चेतन मोहिनी के फन्दे से अलग हो सकता है ।।३।। विवेचन --शुद्ध चेतना समता को कहती है कि हे सखी! मोहिनी समस्त जीवों को जड़ वस्तुओं में उलझाकर अपने वश में रखती है। मोहिनी का सर्वत्र जोर है। हे आनन्दघन चेतन स्वामी! आप अब मोहिनी का माया-जाल तोड़ दें और मेरे हृदय में व्याप्त वियोग रूप दाह को शान्त करके पुष्करावर्त मेघ के समान दर्शन दें, ताकि मेरे अन्तर की ज्वाला शान्त हो और आनन्द ही आनन्द छा जाये। (७७) ( राग-रामगिरी ) हमारी लौ लागी प्रभु नाम । आप खास और गोसलखाने, दर अदालत नहीं काम ।। हमारी० ॥१॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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