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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१९८ घन उपार्जन करने के लिए किये गये पाप उनके साथ जाते हैं। इसी कारण से श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि मेरी परमात्मा से लौ लगी है, मुझे संसार में तनिक भी रुचि नहीं है। अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि ऐसे मनुष्य न तो इधर के रहते हैं और न उधर के । उनका न तो यह लोक सुधरता है न परलोक । वे न तो देह सम्बन्धी सुख भोगते हैं और न वे आध्यात्मिक कार्य ही करते हैं। इस प्रकार वे दोनों के बीच में उलझे रहते हैं। कोई विचक्षण आत्मज्ञानी सन्त मुझे आनन्द के घन और उनके गुणों के स्थान प्रभु का साक्षात्कार करा दे तो मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो जाये। ऐसी श्रीमद् प्रानन्दघनजी की आन्तरिक इच्छा है ।।३।। विवेचन -हृदय-कमल स्थिर हो जाने से अपना और अन्य का कल्याण किया जा सकता है, प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र गुरणों का प्रकाश किया जा सकता है, परमात्मा की पूर्ण आराधना की जा सकती है और अन्त में आत्मा को परमात्मरूप किया जा सकता है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि मैं तो आनन्दघन चेतन प्रभु का नाम जपता रहता हूँ। कोई सन्त पुरुष चेतन प्रभु से साक्षात्कार कराये तो मेरे आनन्द का पार नहीं रहेगा। इससे प्रतीत होता है कि वे प्रति पल परमात्मा का नाम रटते थे।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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