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योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-११६
वह अनुभव ज्ञान का श्रवण कर सके और उसके मुंह पर आनन्द की
छाया छा जाये। अत: चेतना को राग-द्वेषरहित करने का सतत प्रयत्न . करना चाहिए। राग-द्वेषरहित चेतना ही सर्वोत्तम चेतना कहलाती है।
चेतना की अर्थात् ज्ञान की सर्वोत्तमता करने के लिए चारित्र-मोहनीय को जीतने का नित्य प्रयत्न करना चाहिए। राग-द्वेष की वृद्धि करने वाले ज्ञान से कदापि किसी का कल्याण नहीं हो सकता ।
( राग-केदारो) .. प्रोति की रीति नई हो प्रीतम, प्रीति की रीति नई। मैं तो अपनो सरवस वार्यो, प्यारे कीन लई ।।
प्रीति० ॥१॥ मैं बस पिय के, पिय संग और के, या गति किन सिखई । उपकारी जन जाय मिनावी, अब जो भई सो भई ।।
, प्रीति० ।। २ ॥ विरहानल जाला प्रति प्रीतम, मो पै सही न गई । प्रानन्दघन ज्यू सघन घन धारा, तब ही दै पठई ॥
., प्रीति० ।। ३ ।। अर्थ-समता अपने प्रियतम चेतन को कहती है कि हे प्रियतम ! आपने प्रीति की यह तो नवीन रीति ही अपनाई है। यह प्रेम का पंथ तो नहीं है। हे प्रिय ! मैंने तो अपना सर्वस्व आप पर न्योछावर कर दिया है और आप किसी अन्य को ही अपनाये हुए हैं ॥१॥
विवेचन-समता अपने आत्म-स्वामी को कहती है कि क्या यह प्रेम की रीति है ? वह कहती है कि मैं तो आपके लिए प्राण न्योछावर करती हूँ, सर्वस्व न्योछावर करती हूँ और आपके मन में मेरे लिए कुछ भी नहीं है। मेरे हृदय में केवल आप ही हैं। मेरा आपके प्रति विशुद्ध प्रेम है। एक पक्षीय प्रेम, प्रेम की वास्तविक रीति नहीं है। ..
समता श्रद्धा एवं विवेक को कहती है कि मैं तो अपने प्रियतम चेतन के वश में हूँ और प्रियतम ममता के संग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं ।