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श्री आनन्दघन पदावली-११७
पता नहीं यह रीति किसने सिखाई है ? हे श्रद्धे ! हे विवेक ! आप मेरे उपकारी हैं। आप जाकर चेतन को समझाओ और मुझसे मिलाप कराओ। आप जाकर उन्हें कहो कि जो हुमा सो हुअा। समता आपको बीती बातों का उपालम्भ नहीं देगी। आप तो अब उसके पास आयो ।॥२॥ __विवेचन –अात्मा अपने साथ शुद्ध प्रेम रखने वाली समता का संगी नहीं बनता और भ्रान्ति से वह ममता एवं कुमति का संग करता है। इस कारण समता उसे उपालम्भ देतो है कि आपको यह ढंग किसने सिखाया है ? मूढ़ पुरुष परनारी में फंस कर अपने आत्मा को नीच बनाता है और नीति भंग करता है। कुमति के फन्दे में फंसे मनुष्य पागल कुत्ते की तरह विषय-वेग से इधर-उधर दौड़ता है। मूढ़ मनुष्य सुख प्राप्त करने के लिए वहाँ जाते हैं परन्तु . वे दुःख के गर्त में गिरते हैं। पर-नारी की संगति से कदापि शान्ति प्राप्त नहीं होती। अज्ञान दशा के कारण समता के आत्म-स्वामी को यह सब समझ में नहीं आता। इस कारण वह उपकारी मनुष्यों को अपने आत्म स्वामी को मनाकर लाने की विनती करती है।
विवेक एवं श्रद्धा चेतन के पास जाकर कहते हैं कि हे चेतन ! आप जानते ही हैं कि विरह-अग्नि की ज्वाला अत्यन्त दारुण होती है जो समता से सही नहीं गई। इस कारण उसने हमें आपको लेने के लिए भेजा है। विवेक एवं श्रद्धा के समझाने से चेतन का दृष्टि-मोह हट जाता है और स्वरूप-ज्ञान प्रकट होता है। श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि अानन्दघन चेतन ने समता को विरहाग्नि को बुझाने के लिए आनन्द को धारा देकर श्रद्धा एवं विवेक को भेज दिया ॥३॥
विवेचन -श्रद्धा एवं विवेक होने पर ही यह जीव ममता के वश में नहीं होता, उसे समता प्राप्त हो जाती है। सुमति मन की दशा है । यह केवलज्ञान होने के पूर्व ही रहती है और चेतना तो जीव का लक्षण ही है जो सदा जीव के साथ रहती है।
आत्मा का विरह समता को अग्नि की ज्वाला की अपेक्षा विशेष जलाता है। प्रेमी को विरहाग्नि को कोई सहन नहीं कर सकता। समता विरहाग्नि से जल रही है। अतः वह अानन्दघन रूप मेघ की धारा की अभिलाषा करती है जो सचमुच उचित है । आनन्दघन रूप मेघ की धारा से विरह-ज्वाला शान्त होती है अर्थात् जब आत्मा कुमति का, ममता की
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