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श्री आनन्दघन पदावली - ११५
पर-घर घूमने की आदत छुड़ाम्रो, कोई इसे रोको । पर-घर घूमने के कारण यह झूठ बोलने वाली बन गई है और अपने चेतन स्वामी पर कलंक लगाती है ।। १॥
समता
विवेचन - समता उत्तम स्त्री है । इसका आत्मा पर अत्यन्त प्रेम है । अशुद्ध चेतना पर पुद्गल वस्तुओं के सम्बन्ध से पर-घर में घूमने जाती है । नीच प्रवृत्ति करने वालो अशुद्ध चेतना है, अतः वह छोटी बहू मानी जाती है । समता समझदार है और परहितकारी है । लगा कि मेरी बात का अशुद्ध चेतना पर कोई प्रभाव नहीं होता, अत: मैं किसी को कहूँ ताकि अन्य कोई छोटी बहू को ठिकाने लाये । वह लोगों को कहती है कि "अरे कोई उपकारो पुरुष, छोटी बहू की पर-घर घूमने की टेव छुड़ाये । राग एवं द्वेष से पर-भाव रूप घर में घूमते-घूमते यह असत्य - भाषी हो गई है । यह आत्म-स्वामी पर अनेक प्रकार के कलंक लगाती है । यह आत्मज्ञान, दर्शन और चारित्र धर्म को बदनाम करती है ।"
अतः
इसकी इधर-उधर की निरर्थक प्रवृत्ति को देखकर लोग इसे व्यभिचारिणी कहते हैं । यहू प्रत्येक से उपालम्भ लाती है जिससे हृदय विदीर्ण हो जाता है ।। २ ।।
विवेचन – वैभाविक धर्म को आत्मा का कहकर सचमुच यह प्रात्मा को कलंकित करती है । अशुद्ध चेतना ऐसी प्रवृत्ति करती है जिससे लोग इसे छिनाल ( व्यभिचारिणी ) कहते हैं । आत्मा की शुद्ध संगति का परित्याग करके राग-द्वेष रूपी पर-पुरुष के साथ रमरण करने से ज्ञानी लोग अशुद्ध चेतना को कुलटा ( छिनाल ) कहें तो इसमें कोई बुराई नहीं है । अशुद्ध चेतना प्रत्येक मनुष्य के उपालम्भ लाती है । इस प्रकार की प्रवृत्ति हृदय में शल्य उत्पन्न करती है ।
समता श्रद्धा, सुमति आदि पड़ोसनों को कहती है कि हे बहिनो ! तनिक देखो तो सही, यह व्यर्थ गालियाँ खाती है । यह क्यों बदनाम होती है ? श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि यदि यह आनन्दघन चेतन के रंग में रमरण करे तो इसके स्वभाव रूप गोरे गालों पर उपयोग रूप तेज चमकने लगे और समस्त दुर्गुण नष्ट हो जायें ।। ३ ।।
विवेचन - समता के कथन का सारांश यह है कि यदि अशुद्ध चेतना अपनी भूल समझ कर ग्रब से आत्मा की संगति करे और पर पुद्गल वस्तु के घर में न जाये तो उस पर ग्रात्म - स्वामी की कृपा हो जाये ताकि