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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-११४
संगति में रहे परन्तु अब तक आप सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर पाये। ममता के साथ सम्बन्ध रखने से आप पुनः पुन: चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। आप कितने संकट सह रहे हैं ? अतः अब आप मेरी शिक्षा मान लो। श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि सुमति के समान कोई आपकी हितैषी नहीं है । अतः ममता दासी का संग छोड़कर सुमति का संग करो।
श्रीमद् आनन्दघनजी अपनी आत्मा को कहते हैं कि अब सुमति का संग कर। वे अपनी आत्मा को समता के संग में रखने के लिए उसे जो शिक्षा देते हैं वह अपूर्व है। अतः वास्तव में मनन करें तो ममता की संगति से ही अठारह पापस्थानकों का सेवन होता है। ममता आत्मा को चतुर्गति में परिभ्रमरण कराती है, जबकि समता आत्मा को मुक्ति में ले जाने वाली है। हमें नित्य समता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जब भी हमारे मन में ममता के विचार आयें तब समता के विचार करके हमें ममता का नाश करना चाहिए।
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( राग-सोरठ) वारो रे कोई पर . घर भमवानो ढाल । नान्ही बहू ने पर घर . भमवानो ढाल ।। पर घर भमतां झूठा बोली थई, देस्य धणीजी ने पाल ।।
वारो० ॥ १ ॥ अलवै चालो करती देखी, लोकड़ा कहिस्ये छिनाल । अोलभडा जण जण ना प्राणी, हीयड़े उपासै साल ।।
वारो० ॥ २ ॥ बाई पड़ोसण जोवो ने लगारेक, फोकट खास्य गाल । प्रानन्दघन सु रंग रमे तो, गोरे गाल झबूकइ झाल ।।
वारो० ॥ ३ ॥ अर्थ-समता अनुभव, विवेक, श्रद्धा आदि अपने सम्बन्धियों को कहती है कि चेतन की इस छोटी पत्नी अशुद्ध चेतना को पर-घर अर्थात् पौद्गलिक भावों में घूमने की कुटेव पड़ी हुई है। अरे, कोई भी इसकी