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________________ श्री आनन्दघन पदावली - ११३ अर्थ - सुमति कहती है कि हे चेतन ! आप विश्वास क्यों नहीं करते कि मैं आपके मतानुसार चलने वाली हूँ । धूर्त, कपटी और कृपण ममता आपको धोखा देकर आपका ज्ञान आदि धन भक्षण करने के लिए बुरा खाता खताने वाली है अर्थात् वह आपको दुर्गति में ले जाने वाली है ।। १ ।। सुमति अपने आत्मस्वामी को उपालम्भ देती हुई कहती है कि 'हे स्वामी ! ममता की संगति से जगत् में आपकी बदनामी होती है और लोग आपकी हँसी करते हैं । हे स्वामिन् ! जब तक प्राप ममता की संगति में रहेंगे तब तक आपको दक्षता कौन बतायेगा ? मेरे बिना आपको ऐसी बुद्धिमानी कौन बतायेगा ? मेरी बात स्वीकार करके आप मुझ सच्ची पत्नी की बात को मानो और मेरे साथ मिलाप करो तथा सम्यग्ज्ञान आदि अपने सम्बन्धियों का मिलाप करो और ममता का परित्याग करो । अपनी पत्नी रूपीं निज जन का मिलाप दूध में बताशे की तरह मधुर, सुखद एवं तन्मयता प्रदान करने वाला है अर्थात् संयम, सन्तोष, विवेक, आर्जव एवं मार्दव आदि चेतन के स्वजन हैं । इनके संयोग से अनेक गुरण प्रकट होते हैं और उनकी वृद्धि होती है ।। २ ॥ विवेचन - सुमति कहती है कि ममता आपको कदापि अच्छी शिक्षा नहीं देगी | आप ज्ञानी हैं, अतः यदि आप सोचेंगे तो सत्यता जान जायेंगे । हे स्वामी ! आप मेरा कहना मानकर अपने मूलस्वरूप का विचार करो । मैं सदा आपकी हित- चिन्तक हूँ, अतः मेरे अलावा आपको शिक्षा कौन देगा ? सुमति कहती है कि मेरे मिलाप से आपको सच्चा सुख मिलेगा और परमानन्द पद की प्राप्ति होगी । जिस प्रकार दूध में बताशा घुल कर मिल जाता है, उस प्रकार आपका और मेरा स्वभाव दूध में बताशे की तरह तुरन्त मिल जायेगा, अर्थात् मेरा और आपका एक शुद्ध रसरूप स्वभाव है। मेरी और आपकी एक रसरूप परिणति है । अतः आप यदि सोचेंगे तो मुझ पर आपका प्रगाढ़ प्रेम होगा और आप अनन्त सुखों का उपभोग करेंगे । हे आत्मन् ! ममता दासी प्रत्येक प्रकार से अनेक प्रकार के सन्ताप उत्पन्न करने वाली है । आनन्दघनजी कहते हैं कि हे प्रानन्द के समूह चेतन ! कि समता के समान आपका अन्य कोई हितैषी नहीं है ।। ३ ।। अहितकर है तथा श्रीमद् योगिराज मेरी विनय सुनो विवेचन - सुमति कहती है कि हे आत्मन् ! ममता आपका प्रत्येक प्रकार से अहित करने वाली है । आप अनादिकाल से उसकी
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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