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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-११२
केवलदर्शन प्रकट होते हैं। अतः सुमति का मन रूपी पपीहा स्वर के
आलाप से तान मिलाता है, जिससे सुमति अपने शुद्ध चेतन-स्वामी को ' प्राप्त करने के लिए अत्यन्त प्रवृत्ति करती है।
मन के इस परिवर्तन से सुमति को अनुमान होता है कि विभाव दशा रूपी सूर्य उदय होने वाला है जिससे आनन्द के समूह चेतन स्वतः ही मुझसे आकर मिलेंगे ।। ४ ।।
विवेचन-सूमति कहती है कि 'प्रिय प्रिय' की तान लगाने से विभाव-दशा रूप रात्रि घटती जाती है। घटते-घटते रात्रि व्यतीत होने पर अरुणोदय रूप अनुभव-ज्ञान प्रकट होता है, अन्धकार नष्ट हो जाता है। केवलज्ञान रूपी सूर्य का प्रकाश आते ही अन्धकार पूर्णतः नष्ट हो जाता है। केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय होने पर आनन्द के समूहभूत प्रभु सुमति के घर आकर उससे मिले। चौथे गुणस्थानक में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान होता है और अवधिज्ञान भी चौथे गुणस्थानक में होता है।. सातवे गुरगस्थानक में मनःपर्यवज्ञान प्रकट होता है। दसवें गुणस्थानक तक लोभ का उदय होता है जिससे मोहनीयकर्म की अपेक्षा दसवें गुणस्थानक तक विभावदशा रूप रात्रि है।, घाती कर्म की अपेक्षा बारहवें गुणस्थानक तक विभावदशारूप रात्रि कही जाती है। तेरहवं गुणस्थानक में जाते ही केवलज्ञान सूर्य प्रकट होता है। सुमति का तेरहवें गुणस्थानक में परमात्म-स्वामी से साक्षात् मिलाप होता है।
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( राग-सारंग ) नाथ निहारो न प्राप मतासी। वंचक सठ संचक सी रीते, खोटो खातो खतासी ।
नाथ० ।। १ ।। आप बिगूचन जग की हांसी, सैणप कौण बतासो । निज जन सुरिजन मेला ऐसा, जैसा दूध पतासी ।।
नाथ० ।। २ ।। ममता दासी अहित करि हर विधि, विविध भांति सतासी । आनन्दघन प्रभु बीनती मानो, और न हितू समता सी ।।
नाथ० ।। ३ ॥