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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१४६ अर्थ-सुमति अपने स्वामी चेतन को कहती है कि जो अपना सिर काटकर आपके समक्ष रख दे, उसे ही अपनी समझना चाहिए और जो ऐसा नहीं कर सके, वह आपकी नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सुमति ने अपने स्वामी को कहा कि मैं अपने स्वामी आनन्द के समूह की शपथ खाकर कहती हूँ कि जो मैं कहती हूँ, वही मैं कर बताऊंगी। मैं ऐसी नारो नहीं हूँ जो कहे कुछ और, करे कुछ और। हे स्वामी ! मैं आपकी ही हूँ, अन्य किसी की नहीं हूँ ।।३।। विवेचन-सुमति कहती है कि हे स्वामी! आप कदाचित् यह समझते होंगे कि ममता आपकी है, परन्तु वह आपकी नहीं हो सकेगी। जो सिर काट कर आगे रख सके वही आपकी है। अन्य स्त्री आपकी नहीं हो सकती। आप तो उसे हो अपनी सच्ची पत्नी मानें जो प्राणों की भी परवाह न करे और मृत्यु को हिसाब में न माने । (राग तोड़ी) चेतन चतुर चौगान लरी री। जीति ले मोहराज को लसकर, मसकरि छांडि अनादि धरी री ।। चेतन० ॥ १ ॥ नांगो काढ़ि लताड़ ले दुसमण, लागे काची दोइ धरी री। अचल अबाधित केवल मुनसफ, पावे शिव दरगाह भरी री ।। चेतन० ॥ २ ॥ और लराई लरे सो बौरा, सूर पछाड़े भाव अरी री। धरम मरम बूझे कहा औरे, रहि आनन्दघन पद पकरी री ।। चेतन० ॥ ३ ॥ - अर्थ -चेतना अपने प्रियतम चेतनराज को कहती है कि हे चतुर चेतनराज! आप तो अनन्त शक्ति के पुज हो। क्या सोच रहे हो ? मैदान मार लो। मोहराज को सेना राग-द्वेष, काम, क्रोध, माया, लोभ आदि से युद्ध करके विजय प्राप्त कर लो। काल-लब्धि का बहाना बनाना छोड़कर अनादि काल से लगे मोह-पाश का नाश कर दो ॥१॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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