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योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १४८
( ५५ ) ( राग- जैजैवन्ती )
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मेरी सुं मेरी सुं मेरी सुं मेरी सौं मेरी री तुम्ह तैं जु कहा दुरी कहो नै
रूठे देखिके मेरी मनसा दुःख जाके संग खेली सो तो
सवेरी री ॥ मेरी० ॥ १ ॥
घेरी री ।
जगत की चेरी री || मेरी ० ||२||
सिर छेदी आगे धरे और नहीं तेरी री । प्रानन्दघन की सूँ जो कहूँ हुं अनेरी री ॥ मेरी० || ३ ||
अर्थ - सुमति अपने प्रियतम चेतन से कहती है- आपको मेरी शपथ है, आपको मुझसे दूर रहने के लिए किसने कहा है ? आप कृपा करके मुझे उसका नाम शीघ्र बताओ। मैं आपको बार-बार शपथ दे रही हूँ, पर आप मुझे बताते क्यों नहीं हैं ? ॥ १ ॥
विवेचन - जगत् की 'स्थूल भूमिका में भी उत्तम नारी अपने भ्रमित . पति को साहस करके पूछ सकती है कि आप किसके बहकाने से मुझसे दूर रह रहे हैं ? और शपथ देकर पूछने से वह उन्हें ठिकाने लाने का प्रयास करती है । इसी प्रकार आत्मा में विद्यमान सुमति स्वयं से दूर रहने का कहने वाले स्वामी को शपथ देकर विवेक पूर्वक प्रभावशाली शब्दों में पूछे कि आपको मुझसे दूर रहने की बात किसने कही है ? तो कोई आश्चर्य बात नहीं है ।
रूठे
अर्थ -- सुमति आगे अपने स्वामी चेतन को कहती है कि - आपको हुए से देखकर मेरा मन दुःखमय हो गया है । मैं अत्यन्त दु:खी हूँ । जिसके साथ आप खेल रहे हैं, विलास कर रहे हैं, रंगरेलियाँ मना रहे हैं, वह (ममता ) तो संसार की दासी है || २ ||
दासी के कथना
विवेचन - आप जिसके साथ भोग भोग रहे हैं वह तो जगत् की दासी ही है । दासी किसी का हित नहीं कर सकती । नुसार चलने वाले पुरुष दास रूप बन जाते हैं । हे तीन लोक के स्वामी आत्मन् ! आपको जगत् की दासी ममता की संगति कंदापि नहीं करनी चाहिए । उसके साथ रंगरेलियाँ करना आपको शोभा नहीं देता ।