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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१४७ भ्रमण मैं निरर्थक समझती हूँ। सच्चा धन तो वही है जो अपने पास रोकड़ हो। उधराणी बाकी हो उस धन को अपना धन मानना पागलपन है, उसमें तौ जगह-जगह धक्के खाने पड़ते हैं ॥३॥ विवेचन -सुमति कहती है कि मेरे प्रात्म-स्वामी की प्राप्ति के बिना किसी भी गति में जाऊँ, यह सब मिथ्या है। प्रात्म-ज्ञान के द्वारा आत्मा की प्राप्ति के लिए अष्टांग योग को साधना करनी रोकड़ धन की तरह रोकड़ा धर्म है। पर भव में अर्थात् देवलोक में विषय-सुख का भोग करने के लिए जो कुछ किया जाता है वह उधराणी के समान है। अतः रोकड़े धन की तरह आत्म-स्वामी की प्राप्ति के उपयोग में रहना चाहिए। आत्मा का सहज सुख प्राप्त करने के लिए ज्ञान-ध्यान में रमण करना रोकड़ धर्म है। - अर्थ -सुमति पुनः अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि हे सखी ! मेरे प्राणनाथ के बिना मेरी मति अवहाड़े की कुण्डी के समान है अर्थात् कुए के पास बनो छोटो कुण्डो के समान है अर्थात् संकीर्ण है। अनुभव ज्ञान के बिना मेरी मति की ऐसी दशा है अर्थात् कुए से सम्बन्ध होने पर जल का अभाव नहीं रहता, उसी प्रकार मति का अनुभव से सम्बन्ध होने पर चेतन-धारा हदती नहीं है, अन्यथा मति की गति तो अवहाड़े के बोक के समान है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सुमति ने चेतन स्वामी को कहा कि आनन्दघन प्रभु को मैं वन्दन करतो हूँ तथा आत्म-भाव के अतिरिक्त अन्य भावों पर भी रोक लगाती हूँ ॥४।। विवेचन-सुमति कहती है कि प्रियतम रहित मेरी मति अत्यन्त अल्प है। आत्मा का साक्षात्कार होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान के द्वारा जगत् के समस्त पदार्थ एक समय में दृष्टिगोचर होते हैं। परोक्ष रूप से प्रात्मा को प्राप्ति के रूप में जो अनुभव-ज्ञान प्राप्त होता है वह अनुभव-रहित ज्ञान को अपेक्षा उच्च कोटि का है। जिस प्रकार पाताल-फोड़ कुए का जल समाप्त नहीं होता, उस प्रकार आत्मा के स्वरूप को प्राप्त हुई बुद्धि का भी अन्त नहीं आता। श्रीमद् आनन्दघनजी के विचार हैं कि सुमति कहतो है कि अानन्द के समूह आत्म-स्वामी के बिना अन्य सब कुछ अहितकर दु:खकर तथा उपाधिकर प्रतीत होता है । मुझे तो केवल अात्मस्वामी हो सुखकर प्रतीत होते हैं अतः मैं उनको प्रणाम करतो हूँ, अन्य को धक्के मारकर भगा देती हूँ। मैं अन्य का तिरस्कार करतो हूँ और चेतन को प्रणाम करती हूँ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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