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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१४६
कंतड़ा में कामण, लोकड़ा में सोक। एक ठामे किम रहे, दूध कांजी थोक ।। मीठो० ॥२॥ .. कंत विण चौगति, प्राणु मांनु फोक । उघराणी सिरड-फिरड, नाणो खरु रोक ।। मीठो० ॥३।। कंत बिन मति म्हारी, अवहाडानी बोक । धोक यूं प्रानन्दघन प्रवर ने यू टोक ।। मीठो० ॥४॥ .
__ अर्थ-- सुमति अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि मेरे आत्माराम भरतार अत्यन्त प्रिय लगते हैं और अन्य लोग मुझे अप्रिय लगते हैं। भरतार के बिना गोष्ठी जंगल में फोक के समान असार है ॥१॥
विवेचन-संसार में कहीं भी शान्ति नहीं है। संसार का प्रवाह भिन्न प्रकार का ही है। संसार को रीति के अनुसार चलकर कोई मनुष्य अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकता। इस कारण लोगों की बात मुझे उचित प्रतोत नहीं होतो। अतः मुझे तो अपने चेतन स्वामी को
गोष्ठी में ही समस्त प्रकार का सुख है। , .. अर्थ–सुमति अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि मुझे अपने प्रियतम में आकर्षण प्रतीत होता है और अन्य मनुष्यों में शोक प्रतीत होता है क्योंकि अन्य मनुष्य ममता के वशीभत हो सदा आत-रौद्र ध्यान में रहते हैं। दूध एवं कांजी का समूह एक स्थान में कैसे रह सकता है ? इसी प्रकार से एक ही हृदय में समता तथा ममता दोनों साथ कैसे रह सकती हैं ? जहाँ समता है वहाँ ममता नहीं रह सकती और जहाँ ममता है वहाँ समता कैसे रहेगी ? ।।२।।
विवेचन -सुमति अपने उद्गार प्रकट करती है कि मेरे आत्मपति का स्वरूप निहारने में जो आनन्द आता है वह अथकनीय है। जब मैं संसार की ओर दृष्टि डालती हूँ तो शोक का वातावरण प्रतीत होता है। जिस प्रकार दूध तथा कांजी का समूह दोनों एक स्थान में नहीं रह सकते, उसी प्रकार मेरे मन में आत्म-सेवा-भक्ति एवं दुनियादारी दोनों एक साथ नहीं रह सकते।
अर्थ–सुमति कहती है कि हे सखी श्रद्धा ! मेरें स्वामी शुद्ध चेतन के बिना प्राणियों ने चारों गतियों में परिभ्रमण किया है। यह समस्त