________________
श्री आनन्दघन पदावली-१४५
अर्थ-अध्यात्म शैली अर्थात् जिसमें प्रात्मा की ओर ही लक्ष्य रहे, परमात्म-पद प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार महापुरुषों ने प्रयत्न किया था, उसी प्रकार आचरण करे। इस प्रकार परमात्मपन का योग धारण करके दीर्घ काल से सुप्त पड़ी अपनी अनुपम शक्तियों को जाग्रत करे और अपने में गुप्त वीर्य शक्ति से ज्ञानानन्द प्राप्तकर समत्व भाव में रमण करे ॥३॥
विशेष टिप्पणी-जब जीव पुरुषार्थ करते-करते थक जाता है तब उसे काल लब्धि का सहारा लेना ही पड़ता है। समय पर ही सब कुछ होता है। समय पर ही सूर्योदय होता है, समय पर ही वर्षा होती है
और समय पर ही सर्दी एवं गर्मी पड़ती है। इस प्रकार काल का महत्त्व सिद्ध होता है । ज्ञानियों ने बताया है कि पाँच कारण मिलने पर कार्य-सिद्धि होती है। वे पाँच समवाय कारण निम्नलिखित हैं -१. काल, २. स्वभाव, ३. नियति, ४. पूर्वकृत्य और ५. उद्यम। काल लब्धि का परिपाक कब होगा यह तो सर्वज्ञ के अतिरिक्त कोई नहीं जानता। अतः जीव को पुरुषार्थ करने में कदापि कमी नहीं रखनी चाहिए ।
विवेचन –अनेक विद्याओं के पारंगत विद्वान् जब तक अध्यात्म शैली से अनभिज्ञ होते हैं, तब तक वे अपूर्ण रहते हैं। इस पंचम काल में अध्यात्म शैली के प्रति राग होना भी दुर्लभ है। चेतन हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का विवेक करके अन्तर्दष्टि धारण करने लगा, अपने शुद्ध स्वरूप में उपयोग रखकर स्थिर होने लगा, बाह्य दशा के मन में जो-जो संकल्प प्रकट होने लगे, उन्हें दूर करने लगा, ममता के कुविचार मन में आते ही उनका क्षय करने लगा और बाह्य जगत् देखते हुए भी नहीं देखने जैसी स्थिति को धारण करने लगा। श्रीमद् आनन्दघन जी महाराज आत्मा एवं समता का स्वरूप हृदय के अनुभव से व्यक्त करते हैं कि चेतन शुद्ध गुरणों की शक्तियों को समता के योग से प्रकट करने लगा और आनन्द का समूह शुद्धात्मा समता के साथ एक स्थिर उपयोग में रमण करता हुआ कोड़ा करने लगा अर्थात् सहज शुद्धानन्द का उपभोग करने लगा।
(५४)
( राग-प्रासावरी ) मोठो लागे कंतडो ने, खाटो लागे लोक । कंत विहुणो गोठडी, ते रन मांहि फोक ।। मीठो० ।।१।।