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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १४४ औसर पाइ अध्यातम सैली, परमातम निज जोग धरै री । सकति जगाइ निरूपम रूप की, 'प्रानन्दघन' मिलि केलि करे री ॥ मेरी ० 0 11311 अर्थ चेतन कहता है कि तू मेरी है, मेरी है, फिर हे सुमति ! तेरे भय का क्या कारण है ? ममता का मेरे साथ दीर्घ काल का सम्बन्ध है. जिसे टूटता हुआ देखकर वह एक-डेढ़ दिन अर्थात् कुछ समय के लिए तो तुझसे और मुझसे झगड़ा करेगी, परन्तु अब मैं उसे पहचान गया हूँ । उसने मुझे अत्यन्त भटकाया है, उसके फन्दे में फँसकर मैंने अनन्त कष्ट सहे हैं । तू मुझ पर विश्वास रख, अब मैं उसके फन्दे में नहीं फँसू गा । अतः वह एक-दो दिन में हताश होकर स्वतः ही पलायन कर जायेगी || १ || विवेचन - चेतन अपनी पत्नी समता को कहता है कि तू क्यों डर रही है ? अब मैं तुझ पर कदापि क्रोध नहीं करूंगा । इतने समय तक तो मैं ममता के फन्दे में अचेत सा हों गया था। अब जाग्रत हो गया हूँ । अब यदि ममता मेरे पास आकर मुझे ललचायेगी तो भी मैं उसकी ओर देखूंगा तक नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि चेतन सम्यक्त्व प्राप्त करके समझ गया कि ममता अशुद्ध परिणति है, वह दुःखदायी है । उसका आश्रय लेना सुखकारी नहीं है । अर्थ--चेतन कहता है कि इतना तो मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि जौहरी पीतल पर कदापि बहुमूल्य हीरों, पन्नों का जड़ाव नहीं करते। मैं यह भी जानता हूँ कि तेरी ही संगति से मैं अपना स्वरूप पहचानता हूँ । तात्पर्य यह है कि सुमति की संगति से ही चेतन अपने स्वरूप को प्राप्त करके मोक्ष का अधिकारी बनता है ||२|| विवेचन - री री अर्थात् पीतल, पीतल पर कोई जौहरी जड़ाव का कार्य नहीं करेगा । चेतन समता को कहता है कि जब मैं अपना शुद्ध स्वरूप याद करता हूँ तब देह, वारणी एवं मन से मैं भिन्न हूँ, यह मुझे सत्य प्रतीत होता है । इस नश्वर जगत् में कौन ममता के वश में पड़ा रहेगा ? ममता कच्ची स्त्री है, झूठी है एवं दुःख देने वाली है । अब मैंने अपना शुद्ध स्वरूप पहचान लिया है । अतः हे समता ! अब तुझे मैं कदापि छोड़ने वाला नहीं हूँ ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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