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श्री आनन्दघन पदावली- १४३
चेतन का मूल धर्म ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, राग, द्वेष, ईर्ष्या, इच्छा, काम, क्लेश, पर-वस्तु-ग्रहण, ममत्व इत्यादि चेतन का मूल धर्म नहीं है। यदि चेतन इन्हें ग्रहण करे तो कुलवट का त्याग माना जायेगा।
अर्थ-समता की बातें सुनकर विवेक ने चेतन स्वामी को समझाया और पर-परिणति रूप पर-घर का साथ छुड़ाया। उस समय चेतन तथा चेतना का सहज़ ही मिलाप हो गया जिससे सहजानन्द रूप परम सुरंग रंग प्राप्त हो गया। ____कुछ प्रतियों में इस पद की अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है:
'प्रानन्दघन' समता घर आणे, बाधे नव-नव रंग ।।' इस अन्तिम पंक्ति का अर्थ है -
श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि समता के घर पर चेतन के आने से अनुभव सुख के रंग में वृद्धि हो गई और चेतन सदा के लिए शाश्वत सुख का भोक्ता बन गया ॥५।।। - विवेचन-सचमुच विवेक में सत्य एवं असत्य में अन्तर की तथा सत्य ग्रहण करने की अपूर्व शक्ति रही है। विवेक के सदुपदेश से हेय, ज्ञेय एवं उपादेय तत्त्व का आभास होता है। दर्शन आदि समस्त गुणों में सर्वप्रथम विवेक प्रकट होता है। विवेक का कितना माहात्म्य है ? चाहे जैसा आत्मा हो तो भो विवेक क्षण भर में उसे ठिकाने पर ले आता है । मोक्ष-मार्ग की ओर प्रवृत्त करने वाला विवेक है, असत्य से आत्मा को दूर करने वाला भी विवेक ही है ।
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राग-तोड़ी (टोड़ी) मेरी तू मेरी तू काहे डरे री। . कहे चेतन समता सुनि पाखर, और देढ़ दिन झूठी लरै री।
मेरी० ।।१।। एती तो हूँ जानू निहचे, री री पर न जराव जरै री। जब अपनो पद आप संभारत, तब तेरे पर-संग परै री।।
मेरी० ।।२।।