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__ श्री आनन्दघन पदावली-३४१
अर्थ-भावार्थ-नींद, स्वप्न, जागृति और उजागरता में से आपमें उजागरता अर्थात् जागृति आ गई है। इस कारण नींद एवं स्वप्न-दशा आपसे अप्रसन्न हो गई। यह जानकर भी आपने उसे प्रसन्न करने का प्रयास नहीं किया ॥ ३ ॥
अर्थ-भावार्थ-आपने सम्यक्त्व तथा उसके परिवार (शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिकता) के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित किया तथा दुर्बुद्धि को अपराधिनी समझकर आपने आत्म-गृह से निष्कासित कर दिया है ।। ४ ॥
अर्थ-भावार्थ-हँसी, रति, अरति, शोक, दुगंछा (घृणा) तथा भय एवं स्त्री-पुरुष-नपुसक वेद इन नोकषायों ने आपको क्षपक श्रेणी रूपी हाथी पर चढ़ता हुआ देखकर श्वान की चाल पकड़ ली अर्थात् भोंक कर वे चम्पत हो गये ।। ५॥
अर्थ-भावार्थ- राग-द्वेष, अविरति-ये चारित्र-मोहनीय राजा के शक्तिशाली योद्धा हैं। वीतराग के रूप में आपकी परिणति होते देखकर बुद्धिमानी करके ये बिचारे भाग गये ।। ६ ॥ - अर्थ-भावार्थ-वेदोदय से स्त्री-पुरुष में काम-वासना उत्पन्न होती है, किन्तु आप तो काम उत्पन्न करने वाले रस के पूर्णत: त्यागी बने हुए हैं, आप अवेदी बने हैं। इस तरह हे करुणासागर! आप निष्कामी बनकर, कामनाओं से रहित होकर अनन्तज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्यइस चतुष्क पद में लीन हो गये हैं ॥ ७ ॥ .. अर्थ-भावार्थ हे प्रभो! आप दान में विघ्न उत्पन्न करने वाले कर्म को नष्ट करके समस्त भव्य जीवों को अभयदान-पद के दाता हैं। लाभ में विघ्न उत्पन्न करने वाले लाभान्तराय कर्म के विघ्न नष्ट करने वाले विघ्न-निवारक (विनाशक) एवं परम लाभ मोक्ष के शुभ भोगी हैं ॥ ८॥
अर्थ-भावार्थ--हे नाथ ! वीर्य (शक्ति) में विघ्न डालने वाले वीर्यान्तराय कर्म को आत्म-बल से नष्ट करके आपने पूर्णपद अर्थात् अनन्तशक्ति से सम्बन्ध जोड़ लिया है और भोगों एवं उपभोगों में विघ्न डालने वाले भोगान्तराय तथा उपभोगान्तराय इन दोनों कर्मों का विघ्न निवारण करके, उनका क्षय करके आप पूर्ण भोग अर्थात् आत्मानन्द के भोक्ता बने हैं ।। ६॥