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योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४२
अर्थ-भावार्थ--उपर्युक्त अठारह दोषों * से रहित आपकी देह है, मुनि-वन्द ने आपकी महिमा गाई है, स्तवना की है, आप अविरति रूपी दोषों को बताने वाले हैं तथा इन दोषों से रहित हैं, अतः हमें आप प्रिय हैं ।। १० ।।
___ अर्थ-भावार्थः-उपर्युक्त अठारह दोष-रहित तीर्थंकर की परीक्षा करके मन को विश्राम देने वाले श्री मल्लिनाथ जिनेश्वर के जो गुण-गान करते हैं वे दीन-बन्धु परमात्मा की कृपा दृष्टि से अानन्द-पूर्ण-पद (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं ।। ११ ॥
(२०)
श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन | (राग---काफी-आघा प्राम पधारो पूज्य-ए देशी) मुनिसुव्रत जिनराज, एक मुझ विनती निसुणो ।
.. .. ॥टेक ॥ प्रातम तत क्यू जाण्यु जगतगुरु, एह विचार मुझ कहिये । प्रातम तत जाण्या विण निरमल, चित्त समाधि नंव लहिये ।
मुनि० ।। १॥ कोई प्रबंध प्रातम तत माने, किरिया करतो दीसे । क्रिया तणो फल कोण भोगवे, इम पूछ यां चित्त रीसे ।
__ मुनि० ॥ २ ॥ जड चेतन ए आतम एकज, थावर जंगम सरिखो। सुख दुःख संकर दूषण प्रावे, चित्त विचार जो परिखो ।
मुनि० ।। ३ ॥
* १. आशा, तृष्णा, २. अज्ञान, ३. नींद, ४. स्वप्न, ५. मिथ्यात्व, ६. हास्य,
७. रति, ८. अरति, ६. भय, १०. शोक, ११. दुगंछा, १२. राग, १३. द्वेष, १४. अविरति, १५. काम्यक दशा, १६. दानान्तराय, १७. लाभान्तराय और १८ भोगोपभोगान्तराय ।