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श्री आनन्दघन पदावली-३४३ .
एक कहे नित्यज प्रातम तत, प्रातम दरसण लीनो । कृत विनास अकृतागम दूषण, नवि देखे मति हीणो।
मुनि० ।। ४ ।। सुगत मत रागी कहे वादी, क्षणिक ए पातम जाणो । बंध-मोख सुख-दुःख नवि घटे, एह विचार मन जाणो ।
मुनि० ।। ५ ॥ भूत चतुष्क वरजी आतम तत, सत्ता अलगो न घटे । अन्ध सकट जो नजर न देखे, तो शु कीजे सकटे ।
मुनि० ।। ६ ।। इम अनेक वादी मत विभ्रम, संकट पडियो न लहे । चित्त समाधि ते माटे पूछ, तुम विण तत कोण कहे ।
. मुनि० ।। ७ ।। बलतू जगगुरु इण परि भाखे, पक्षपात सहु छंडी। राग-द्वेष मोहे पंख वरजित, प्रातम सू रढ मंडी ।
मुनि० ।। ८ ।। प्रातम ध्यान करे जो कोऊ, सो फिर इण में नावै । वागजाल बीजू सहु जाणे, एह तत्त्व चित्त चावै ।
मुनि० ॥ ६ ॥ • 'जे विवेक धरि ए पख ग्रहियो, ते तत ज्ञानी कहिये । श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो, 'पानन्दघन' पद लहिये ।
- मुनि० ॥ १० ॥ शब्दार्थ-तत तत्त्व । नवि=नहीं। अबंध-बंध रहित । दीसे= दिखाई देता है। रीसे रुष्ट होता है। थावर=स्थावर । जंगम=चलनेफिरने वाले प्राणी। संकट=संकर दोष । लीनो=निमग्न । सुगत= भगवान बुद्ध । भूत तत्त्व । चतुष्क=चार तत्त्व--पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । वरजी=रहित । सकट=गाड़ी। बलतू =उत्तर में। रढ़ प्रीति । वागजाल-बकवास ।